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________________ ३५९ भी बात है कि घट का उपादान जो स्थूल रूप से कुशूल है उसकी उत्पत्ति भी तो अनुकूल निमित्तो के सहयोग से ही हुआ करती है। इसी प्रकार कुशूल का उपादान जो. कोश है और कोश का उपादान जो स्थास है इनकी उत्पत्ति भी अनुकूल निमित्तो के सहयोग से ही हुआ करती है। यही व्यवस्था क्षणवर्ती पर्यायों के विषय मे भी समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि स्वपरप्रत्यय परिणमनो मे जो एक का उपादान है वही दूसरे का कार्य है। अर्थात् प्रत्येक वर्तमान पर्याय जहाँ पूर्ववर्ती अनुकूल पर्याय का कार्य है वही वह उत्तरवर्ती अनुकूल पर्याय का कारण भी है। इसलिए उपादान की तैयारी मे भी निमित्तो का सहयोग अपेक्षणीय रहा करता है-यह सिद्धान्त स्थिर हो जाता है। उपादान की तैयारी सम्बन्धी इस कथन का प० फूलचन्द्र जी की विचार धारा के साथ कहा तक मेल बिठलाया जा सकता है-इस दृष्टि से यह विवेचन किया है, परन्तु वास्तविकता यही है कि उपादान हमेशा द्रव्य ही हुआ करता है। वह पर्याय विशिष्ट ही होता है-यह बात दूसरी है लेकिन पर्याय तो कार्य मे ही अन्तर्भूत होती है वह उपादान कभी नही होती। इसका कारण यह है कि पूर्व पर्याय का विनाशं होने पर ही उत्तर पर्याय उत्पन्न हाती है जव कि उपादान को कार्य मे हमेशा अनुस्यूत ही रहना चाहिये । यहाँ इतना विशेष समझना चाहिये कि जहाँ भी कार्यकारण भाव का निर्धारण करना हो तो वहाँ पर अन्वय-व्यतिरेक के आधार पर ही करना चाहिए। श्रीमद्भट्टाकलङ्क देव ने अपने ग्रन्थ अष्टशती 'मे आप्तमीमासा की ८६ वी कारिका की टीका करते हुए निम्नलिखित
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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