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________________ ३४२ यहाँ इतनी विशेषता समझ लेनी चाहिये कि कही-कही तो उपचरित अर्थ की सिद्धि के लिए निमित्त और प्रयोजनदोनो ही उपयोगी होते है लेकिन कही कही केवल निमित्त ही उपचरित अर्थ की सिद्धि के लिए उपयोगी होता है । जैसे" गङ्गाया घोप " यहाँ पर तो उपचरित अर्थ की सिद्धि के लिए निमित्त और प्रयोजन दोनो ही उपयोगी हैं लेकिन "मवा. क्रोशन्ति" व " धनुर्घावति" इन स्थलों मे उपचरित अर्थ की सिद्धि के लिये केवल निमित्त ही उपयोगी है । निमित्त और प्रयोजन दोनो मे से निमित्त तो शब्द का लक्ष्यार्थ होता है और वह शब्द निष्ठ लक्षणावृति के आधार पर शब्द द्वारा प्रतिपादित होता है लेकिन प्रयोजन शब्द का व्यग्यार्थं होता है और वह शब्द निष्ठ व्यञ्जना वृत्ति के आधार पर शब्द द्वारा प्रतिपादित होता है । इससे यह बात निश्चित होती है कि लक्ष्यार्थ, और व्यंग्यार्थ ही उपचरित अर्थ की स्थापना (सिद्धि) में कारण होते हैं । इस तरह आलाप पद्धति के “मुख्याभावे सति निमित्ते प्रयोजने च उपचार प्रवर्तते" वचन का क्या अभिप्राय है यह अच्छी तरह स्पष्ट हो जाता है ।, ? प० फूलचन्द्र जी का कहना है कि जो वचन अपने अभिधेय अर्थ का प्रतिपादन नही करता है वह असत्यार्थ माना जाता है और इस प्रकार असत्यार्थ होकर भी जो वचन इष्टार्थ का ज्ञान कराने मे हेतु होता है उसे उपचरित वचन कहना चाहिये । इसकी मीमासा मे यह बात तो ऊपर बतला दी गयी है कि आगम के अनुसार उपचरित वचन वही कहलाता है जो उपचरित अर्थ का प्रतिपादन करता है इसलिये उपचरित वचन इस रूप मे अस्त्यार्थं नही होता है कि उसका कोई अर्थ ही नही
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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