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कार व्यक्ति तो वहाँ पर सर्वथा अकिश्चित्कर ही बना रहता है ।" परन्तु उनका ऐसा कहना मिथ्या है क्योकि यदि प० फूलचन्द्रजी आदि की इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाय तो मिट्टी से उत्पन्न होने वाले कुम्भ के निर्माण मे कुम्भकार व्यक्ति की तरह तन्तुवाय ( जुलाहे ) को भी कुम्भकार शब्द से कहने का प्रसंग उपस्थित हो जायगा । इसलिए वास्तविक बात यह है कि कुम्भकार व्यक्ति मे कुम्भ-निर्माण का कर्तृत्व तो है परन्तु उसका वह कर्तृत्व मिट्टी की तरह कुम्भरूप से परिणत होने रूप निश्चय कर्तृत्व, परमार्थ कर्तृत्व, यथार्थ कर्तृत्व, सत्यार्थ कर्तृत्व, भूतार्थ कर्तृत्व, वास्तविक कर्तृत्व, अन्तर कर्तृत्व या मुख्यकर्तृत्व अर्थात् उपादान कर्तृत्व नही है अपितु उसका वह कर्तृत्व मिट्टी से निर्मित होने वाले कुम्भनिर्माण में सहायक होने रूप व्यवहार कर्तृत्व, अपरमार्थ कर्तृत्व, अयथार्थ कर्तृत्व, असत्यार्थ कर्तृत्व, अभूतार्थकर्तृत्व, वरिगकर्तृत्व या उपचरित कर्तृत्व अर्थात् निमित्त कर्तृत्व है ।
इस कथन का आशय यह है कि कर्तृत्व दो प्रकार का होता है - एक तो निश्चय कर्तृत्व आदि नामो से कहा जाने वाला कार्यरूप से परिणत होनेरूप उपादान कर्तृत्व और दूसरा व्यवहार कर्तृत्व आदि नामो से कहा जाने वाला कार्यरूप से परिणत होने वाली वस्तु के उस परिणमन मे सहायक होने रूप निमित्त कर्तृत्व | इनमे से मिट्टी मे तो कुम्भ निर्माण का पहला कर्तृत्व रहता है और कुम्भकार व्यक्ति मे कुम्भ निर्माण का दूसरा कर्तृत्व रहता है । इस तरह मिट्टी और कुम्भकार दोनो शब्द निर्माण के प्रति क्रमश मिट्टी और कुम्भकार व्यक्ति मे कुम्भ विद्यमान उस-उस कर्तृत्व का ही प्रतिपादन करते है ।