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________________ परिणन न होकर भी उपादान कारण की यायम्प परिणति में उसको ( उपादानकारण की ) महायता करता है। स तरह प० फूलचन्द्रजी का "निश्चयरत्नत्रय की प्राप्ति जीव को होने पर व्यवहाररत्नमय होता ही है उने उसकी प्राप्ति के लिये अलग में प्रयल नहीं करना पटता है" इत्यादि गायन निरर्थक सिद्ध हो जाता है। यहा पर में प्रसगवा रतना और कह देना चाहता हू कि आगम में निश्चयरत्नत्रय, निश्चयधर्म या निश्चय मोक्षमार्ग को जो निश्चय, परमायं, यथावं, गत्या, भूतार्य, वास्तविक, अन्तरग और मुख्य आदि नामो मे पुकारा जाता है उसका अभिप्राय यही है कि वह मोक्ष की प्राप्ति मे माक्षात् कारण होता है और व्यवहार रत्नत्रय, व्यवहार धर्म या व्यवहार मोदागार्ग को जो व्यवहार, अपरमार्थ, अयथार्य, असत्यार्य, अभूतार्थ, अवास्तविक, बहिरग और उपचरित आदि नामो से पुकारा जाता है उसका भी अभिप्राय यही है कि वह मोक्ष की प्राप्ति मे साक्षात् कारण न होकर उक्त प्रकार परपरा कारण होता है । इस प्रकार आगम मे उपादानकारण को जो उपादान, निश्चय, परमार्थ, यथार्थ, सत्यार्य, भूतार्थ, वास्तविक, अन्तरंग और मुख्य आदि नामो से पुकारा जाता है उसका अभिप्राय यही है कि वह कार्यरूप परिणत होता है और निमित्तकारण को जो निमित्त, व्यवहार, अपरमार्थ, अयथार्थ, अमत्यार्थ, अभूतार्थ, अवास्तविक, वहिरग और उपचरित आदि नामो से पुकारा जाता है उसका भी अभिप्राय यही है कि वह कार्यरूप परिणत न होकर उपादान के कार्यरूप परिणत होने में उसकी सहायता करता है। इस प्रकार प० फूलचन्द्र जी,प० जगन्मोहनलालजी और
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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