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________________ ३२१ छोडने की यद्यपि जीव को आवश्यकता नही है परन्तु वह जैसाजैसा दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्मों के यथासभव उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम के आधार पर सकल्पी पापो के साथ आरम्भी पापो का भी त्याग करता हआ आगे-आगे के गूणस्थानो की ओर बढता जाता है वैसा-वैसा उसका रूप परिवर्तित होता जाता है और अन्त मे वह जब सपूर्ण मोहनीयकर्म का सर्वथा उपशम अथवा क्षय हो जाने पर पापो की आरम्भ रूपता को सर्वथा समाप्त करता हुआ क्रियावती शक्ति के केवल योगात्मक रूप को प्राप्त हो जाता है तब क्रमश. मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवर्गणा मे होने वाली निष्क्रिया के आधार पर वह स्वयमेव छूट जाता है। इस विवेचन से यह बात अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि व्यवहार रत्नत्रय को उपचरित रत्नत्रय, उपचरित धर्म या उपचरित मोक्षमार्ग इसलिये नही कहा जाता है कि वह केवल पुण्याचरण रूप ही होता है या मोक्षरूप कार्य की उत्पत्ति मे वह अकिंचित्कर बना रहा है किन्तु इसलिये कहा जाता है कि एक तो वह सकल्पी पापरूप पापाचरण के समाप्त हो जाने पर आरम्भी पापरूप पापाचरण के त्याग के आधार पर होता है और दूसरे मोक्षकार्य की उत्पत्ति मे साक्षात् कारण न होकर भी मोक्ष के साक्षात् कारणभूत निश्चय रत्नत्रय, निश्चय धर्म या निश्चय मोक्षमार्ग का कारण होकर कारण होता है। इसी तरह इस विवेचन से यह बात भी अत्यन्त स्पष्ट हो जाती है कि कार्योत्पत्ति मे निमित्तकारण को जो उपचरित कारण कहा जाता है वह इसलिये नही कहा जाता है कि वहाँ पर वह अकिचित्कर ही रहा करता है किन्तु इसलिये कहा जाता है कि वह वहा पर उपादानकारण की तरह कार्यरूप
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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