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________________ चुकी है। अब इस बात पर ध्यान देना है कि वह उपयुक्ताकार ज्ञान उपर्युक्त प्रकार से विकृत होने पर भी अपने आप मे बन्ध फा कारण नही होता है किन्तु चारित्र मोहनीय कर्म से प्रभावित अर्थात् राग व द्वेष रूपता को प्राप्त जीवं की मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रिया ही बन्ध का कारण होती है। इसका अवश्य है कि दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से विकार को प्राप्त वह उपयुक्ताकार ज्ञान उस क्रिया मे प्रेरक हुआ करता है । जैसे किसी व्यक्ति ने विष को यदि अमृत (औषधि) समझ लिया तो ऐसा समझ लेने मात्र से तब तक उस व्यक्ति को हानि नही होती है जब तक वह व्यक्ति औषधि के रूप मे उसका. उपयोग नही करता है लेकिन इतनी बात अबश्य है कि विष को औषधि समझने वाला व्यक्ति उस ज्ञान के आधार पर तत्काल या कभी न कभी उसका औषधि के रूप मे उपयोग कर सकता है। इस तरह जिस प्रकार विष को अमृत (औषधि) समझना परम्परया हानिकर है उसी प्रकार दर्शन मोहनीय कर्म से विकृत हुआ ज्ञान भी परम्परया बन्ध का कारण होता है लेकिन साक्षात् कारण तो चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित अर्थात् राग तथा द्वेष रूपता को प्राप्त जोव की मानसिक,वाचनिक और कायिक क्रिया ही हुआ करती है। तात्पर्य यह है और जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है कि मन, वचन और काय की अधीनता मे होने वाली जीव की क्रिया 'योग) तो कर्मो के प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध मे अथवा यो कहिये कि आस्रव मे कारण होती है और वह क्रिया जब तक चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित रहती है यानि राग तया द्वेष रूपता को प्राप्त रहती है तब तक वह उन अ स्रवित
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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