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________________ २६६ आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार के कलश पद्य ५१ मे भी उपादान कर्त्तारूपकारण का यहो स्वरूप बतलाया है । यथा यः परिणमति स की य. परिणामो भवेत्त तत्कर्म । या परिणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्न न वस्तुतया ।। इसमे स्पष्ट बतलाया गया है कि जो कार्य रूप परिणत होता है वह कर्ता (उपादान कर्ता) कहलाता है। उपादान और निमित्त शब्दो के व्युत्पत्यर्थ पर यदि ध्यान दिया जाय तो इससे भी समझ मे आ जाता है कि जो कार्यरूप परिणित होता है वह उपादान कहलाता है और जो उपादान की कार्य परिणति मे उस उपादान की सहायता करता है वह निमित्त कहलाता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि 'उप' उपसर्गपूर्वक आदानार्थक 'आ' उपमर्ग विशिष्ट 'दा' धातु से 'ल्युट' प्रत्यय होकर उपादान शब्द निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ यही होता है कि जो परिणमन को ग्रहण करे अर्थात जो कार्यरूप परिणत हो वह उपादान है। इसी तरह 'नि' उपसर्गपूर्वक स्नेहार्थक 'मिद्' धातु से 'क्त' प्रत्यय होकर निमित्त शब्द निष्पन्न हुआ है । मित्र शब्द भी इसी 'मिद्' धातु से 'क' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुआ है । इस प्रकार जो मित्र के समान उपादान के कार्यरूप परिणत होने मे उस उपादान का स्नेहन करता है अर्थात् उसको (उपादान को) सहायता पहुचाता है वह निमित्त है। व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय के स्वरूप को सम्झने के लिये श्रद्धेय प० दौलतराम जी कृत छहढाला की
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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