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________________ २६८ उपादान में उत्पन्न होने वाले कार्य मे निमित्त को तथा निश्चयरलत्रय में प्राप्त होने वाले मोक्ष मे व्यवहाररत्नत्रय को जो अकिचित्कर मानते है और इसके आधार पर ही वे जो निमित्त कारण को कार्योत्पत्ति मे उपचरित कारण तथा व्यवहार रत्नत्रय को मोक्ष प्राप्ति मे उपचरित धर्म मानते है सो उनकी ये दोनो मान्यतायें भ्रमपूर्ण ही है। इन लोगो के ऐसा मानने से तो यह समझ मे आता है कि ये लोग निमित्तकारण और व्यवहाररत्नत्रय के स्वरूप से ही अनभिज्ञ हो रहे है । अत यहाँ पर निमित्तकारण और उदादानकारण तथा व्यवहाररत्नत्रय और निश्चयरत्नत्रय के स्वरूप को बतलाया जा रहा है। निमित्त कारण के स्वरूप को समझने मे पूर्वोद्धृत अष्टसहस्री का "तदसामर्थ्यमखण्डयत्" इत्यादि वचन और प्रमेय कमल मार्तण्ड का "यच्चोच्यते" इत्यादि वचन ही पर्याप्त सहायक होते हैं क्योकि इनका आशय यह है कि जो उपादान की कार्य परिणति मे उगदान का सहायक होता है वह निमित्त कहलाता है। उपादान कारण का स्वरूप समयसार की निम्नलिखित गाथा मे प्रतिपादित है। ज भाव सुहमसुह फरेदि आदा स तस्स खलु कत्ता। त तस्स होदि कम्म सो तस्स दु वेदगो अप्पा ॥१०६ । अर्थ-जिस शुभ या अशुभ भाव रूप आत्मा परिणत होता है उस भाव का वह कर्ता (उपादान कर्ता) कहलाता है और वह भाव उसका कर्म कहलाता है तथा उसका वेदक (अनुभोक्ता) वही (आत्मा) होता है।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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