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या तिर्यग्पर्याय होगी एव मनुष्य अथवा तिर्यग्पर्यायो के अनन्तर मनुष्य, तिर्यग् देव तथा नारक इन चारो मे से कोई भी पर्याय होगी नियम से एक पर्याय नही होगी अत उनमे से कोई भी पूर्व पर्याय उत्तरपर्याय की कारण नही मानी जा सकती है किन्तु उस-उस आयु कर्म का और उस उम गतिनाम कर्म का उदय ही उस-उस पर्याय की उत्पत्ति मे कारण माना जा सकता है ।
इस सव विवेचन का सार यह है कि विवक्षित कार्य की उत्पत्ति से अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती पर्याय उस विर्वाक्षत कार्य की नियामक कदापि नही हो सकती है किन्तु उसकी नियामक निमित्त सामग्री ही होती है । इस सम्बन्ध मे और भी स्पष्टीकरण किया जाय तो यो किया जा सकता है कि मिट्टी अनादिकाल से खानि मे पडी चली आरही है, तो जब तक उसमे उसके अपने नियत परिणमन स्वभाव के आधार पर यथायोग्य समान और कदाचित् असमान भी परिणमन होते रहते हैं वे सभी परिणमन क्रमश अनायास प्राप्त समान ओर असमान निमित्तो के सहयोग से ही हुआ करते हैं । यद्यपि ये सभी परिणमन एक-एक के रूप मे उत्तरोत्तर समयो मे ही हुआ करते है परन्तु यहा पर पूर्व परिणमन उत्तर परिणमन का नियामक होता हो-- ऐसी बात नही है क्योकि पूर्व परिणमन को यदि उत्तर परिणमन का नियामक माना जायगा तो समान परिणमन होते-होते जो यकायक असमान परिणमन होने लगता है उसकी असगति हो जायगी । खानि मे पडी हुई उस मिट्टी को कुम्भकार द्वारा खोद कर घर लाने पर उसमे जो स्थास, कोश, कुशल और घट आदि विविध प्रकार के परिणमन होते देखे जाते हैं वे सब तो स्पष्ट हो कुम्भकार, चक्र, दण्ड और