SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७० उपादान मे नाना प्रकार की कार्योत्पत्ति की सभावना सिद्ध हो जाती है । इस तरह तव वही कार्य उसमे उत्पन्न होता है। जिसके अनुकुल निमित्त सामग्री का सद्भाव और वाधक कारणो का अभाव वहा पर रहा करता है। पूर्व में मैं बतला चुका हूँ, कि जीव मे जब तक क्रोध कर्म का उदय रहता है तब तक उसकी क्रोध रूप परिणति होती है और जब मान कर्म का उदय हो जाता है तो क्रोध रूप परिणति न होकर मानस्प परिणति उसकी होने लगती है । इसका फलितार्थ यह है कि जीव मे क्रोध रूप परिणत होने की और मान रूप परिणत होने की दोनो ही योग्यतायें विद्यमान है परन्तु उसमे दोनो परिपतिया एक साथ उत्पन्न नही होती हैं अर्थात् क्रोध कर्म का उदय हो तो कोव रूप परिणति होती है और मान कर्म का उदय हो तो मान रूप परिणति होती है । लोक में देखा जाता है कि महिलायें गू दे हुए आटे मे से अशो को तोड तोड कर पुडी, रोटी, वाटी आदि आवश्यकतानुसार वनाती चली जाती हैं । इसी तरह गू दी हुई मिट्टी मे से भी अशो को तोड-तोड कर कुम्भकार घडा, सकोरा आदि आवश्यकतानुसार विविध प्रकार की वस्तुयें वनाता चला जाता है । ऐसे स्थलो मे यह सोचना कि आटे के सभी परमाणु अनादि काल से क्रम वद्ध परिणमन करते हुए चले आ रहे थे उनमे से जिनके क्रमवद्ध परिणमनो मे जिस काल मे पुडी का रूप आना था उनमे पुडी का रूप आया, जिनमे रोटी का रूप आना था उनमे रोटी का रूप आया और जिनमे बाटी का रूप आना था उनमे बाटी का रूप आ गया यह विविध प्रकार का परिवर्तन निमित्ताधार पर नही हुआ यह सब पगलपन की निशानी है । मिट्टी के अ शो से कुम्भकार के व्यापार के आधार पर जो घडा, सकोरा, आदि बनते चले
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy