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त्पत्ति के लिये केवलज्ञान पर आधारित नियतवाद का सहारा उपयोगी नही होगा क्योकि नियतवाद मे जब कार्योत्पत्ति का प्रश्न हो नही रहता है तो उसमे कार्यकारण भाव को स्थान कैसे प्राप्त हो सकता है ? और यह निर्विवाद बात है कि जब वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक है तो कार्योत्पत्ति और उसके कार्यकारण भाव को स्वीकार करना अनिवार्य हो जाता है यही कारण है कि स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा को "ज जस्स जम्मि देसे - आदि" उपर्युक्त गाथाओ मे कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध मे " जेणवि हाणेण" और "तेण विहारोण" पदो द्वारा कार्यकारणभाव को स्वीकार किया गया है । इस प्रकार जब वस्तु व्यवस्था मे कार्योत्पत्ति और उसके कार्यकारण भाव को स्थान मिल जाता है तो केवल त्रान के आधार पर नियतवाद की स्थिति निर्णीत होने पर भी श्रुतज्ञान के आधार पर अनियतबाद को भी स्थान मिल जाता है तथा जब तक श्रुत ज्ञानी जीव श्रुत ज्ञान की निर्विकल्पक स्थिति को नही प्राप्त कर लेता है तब तक उसे कार्य सिद्धि के लिये पूर्वोक्त प्रकार से सकल्प और विकल्प के आधार पर पुरुषार्थ करने मे प्रवृत्त होना अनिवार्य ही रहता है तथा इसमे उपादानगत योग्यता, उपादान की कार्याव्यवहित पूर्व पर्यायविशिष्टता, निमित्त सामग्री का सद्भाव और बाधक सामग्री का अभाव ये सभी बाते समाविष्ट हो जाती है । प्रमेय कमल मार्तण्ड का पूर्वोक्त " यच्चो च्यते"इत्यादि कथन हमे इसी अभिप्राय की सूचना देता है ।
इस प्रकार उपादान मे कार्य सिद्धि की योग्यता रहते हुए भी और उसके कार्याव्यवहित पूर्वपर्याय मे पहुँच जाने पर भी वह कार्योत्पत्ति जब निमित्त सामग्री के सद्भाव और बाधक सामग्री के अभाव की अपेक्षा रखती है तो उस हाल मे भी