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प्राप्त ससारी जीवो के लौकिक व पारमार्थिक सभी कार्य क्या इस प्रक्रिया को एकान्त रूप से अपनाने से सम्पन्न हो सकते हैं ? या उन्हे उक्त कार्यों की सम्पन्नता के लिए कार्य-कारणभाव का सहारा लेने की अनिवार्य आवश्यकता है ?
सर्वाधिक महत्त्व की बात यह है कि प० फूलचन्द्र जी, प० जगन्मोहनलाल जी और उनके सपक्षी सभी जन कार्य सम्पन्नता के लिए पुरुषार्थ करने का न केवल उपदेश देते हैं प्रत्युत स्वय भी इसके लिए पुरुपार्थ करते हैं, तो उनका ऐसा करना क्या स्ववचन बाधित नही है ?
वास्तविकता यह है कि केवलज्ञान मे तो त्रिकालवर्ती पर्यायो के पिण्डरूप वस्तु युगपत् प्रति समय समान रूप से प्रतिभासित होती रहती है अत उसमे कायकारणभाव का प्रसग हो उपस्थित नहीं होता है क्योकि उसमे वस्तु की प्रत्येक पर्याय अपने-अपने नियत समय के साथ स्थित रहती हुई ही प्रतीत होती है । इसका फलितार्थ यह हुआ कि केवलज्ञान की अपेक्षा जिस प्रकार निमित्त नैमित्तिकभावरूप कार्यकारणभाव की अपेक्षा नही हो सकती है उसी प्रकार उपादानोपादेयभावरूप कार्यकारणभाव की अपेक्षा भी नही होती है। एक बात और है कि जिस प्रकार आँखो द्वारा मणिमाला को देखते हुए भी उसको विविध रूप मे विभाजित करना आँखो का कार्य नही है मस्तिष्क का कार्य है । अर्थात् जीव आँखो को सहायता से होने वाले मति ज्ञान से मणिमाला के सभी गुरियो को देखता है, उनके रूप-रग को तथा उनके छोटे-बडे परिमाण और आकारो को भी देखता है परन्तु गुरियो की संख्या कितनी है, कौन गुरिया का क्या रूप है और कौन गुरिया कितना वडा या छोटा है तथा