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ર૪૬ त्पत्ति के प्रति यदि किसी प्रकार उपचरितता स्वीकार की जाती है तो वह उपचरितता इसी रूप मे स्वीकार की जा सकती है कि जिस तरह उपादान कारण कार्यरूप परिणत होता है उस तरह निमित्त कारण उस कार्यरूप परिणत नही होता है केवल उपादान की कार्य परिणति से सहयोगी-मात्र होता है। लेकिन इससे यह तो सिद्ध नही होता कि निमित्त वहाँ सर्वथा अकिंचित्कर ही बना रहता है । इस विपय को पूर्व मे विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया जा चुका है।
प० जगन्मोहनलाल जी ने अपने कथन का जो यह निष्कर्ष निकाला है कि "चूकि दीपक मनुष्य को बलात् (जवरदस्ती ) पढाता नहो, इसलिए वह मनुष्य के पढने मे निमित्त माना गया है।" सो उनका यह निष्कर्ष निकालना भी अयुक्त है क्योकि आगम मे निमित्तो का एक भेद प्रेरक भी माना गया है और निमित्तो की प्रेरकता अनुभव गम्य भी है। जैसे कुम्भकार घटोत्पत्ति मे प्रेरक निमित्त ही तो है कारण कि जब तक कुम्भकार अपना व्यापार घटोत्पत्ति के अनुकूल नही करता है तव तक घटोत्पत्ति का होना असम्भव ही रहता है। इसी तरह ऐन्जन के चलने पर उससे सयुक्त रेलगाडी के डिब्बे भो चल पडते हैं तो ऐन्जन भी उन डिब्बो के चलने मे प्रेरक निमित्त हो जाता है और इसी तरह ड्राईवर भी ऐन्जन के चलने मे प्रेरक निमित्त होता है । मालूम पडता है पण्डित जगन्मोहन लाल जी व प० फूलचन्द्रजी आदि प्रेरकता का अर्थ कार्य रूप परिणत होना मान लेना चाहते हैं अथवा अन्य वस्तु मे कार्योत्पत्ति की निजी योग्यता न रहते हुए भी अन्य वस्तु द्वारा उस कार्य की उत्पत्ति करा देना मान लेना चाहते हैं, लेकिन यह उन लोगो की भ्रान्ति ही है क्योकि कार्योत्पत्ति की निजी