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________________ २३२ कर्मों के क्षय को कारण स्वीकार करना मयुक्त नहीं है। फिर भी ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय उनकी अकल्प पर्याय के अलावा और कुछ नहीं है, इसलिये उसे जीव की केवलज्ञान पर्याय से अत्यन्त पृथक स्वत प्र पुद्गल द्रव्य की ही पर्याय माना गया है। यही कारण है कि मानावरणादि कमों के क्षय तथा जीव के केवलज्ञान की प्रकटता में विद्यमान कार्यकारणभाव को उपादानोपादेय भावप कार्यकारणभाव न मान कर निमित्तनमित्तिकभावम्प कार्यकारणभाव ही माना गया है और इस प्रकार यह नयो के निचय और व्यवहार म्प विकल्पो मे से यद्यपि व्यवहार म्प विपाप की कोटि मे हो ममाविष्ट होता है फिर भी व्यवहार म्प विकल्प की कोटि मे आ जाने से वह अवास्तविक ( अमत्य या कल्पित ) हो जाता हो-सो बात भी नहीं है क्योकि व्यवहार भी अपने ढग से वास्तविक होता है-- यह बात में पूर्व मे मिद कर चुका है। दूसरे यह बात भी है कि ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय जब उनकी अकर्मरूप भावात्मक उत्तरपर्याय के अतिरिक्त और कुछ नही है तो फिर उसे अवास्तविकता का रूप कसे दिया जा सकता है ? एक बात और है कि निमित्त मे यदि काई अवास्तविकता पायी जाती है तो वह यही है कि वह स्वय (आप) कार्यरूप परिणत नही होता है । अर्थात कार्य मे जिस प्रकार उपादान की स्थिति उसके निप्पन्न हो जाने पर भी बनी रहती है उस प्रकार उसमे निमित्त की स्थिति नही रहा करती है क्योकि निमित्त तो तभी तक अपेक्षित रहा करता है जब तक कार्य निष्पन्न नहीं होता है यानि कार्यरूप ही बना रहता है । लेकिन वह जव अपनी कार्यरूपता को समाप्त कर निष्पन्नरुपता को प्राप्त कर
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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