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२२३ पृष्ठ १९ पर तत्त्वार्थ सूत्र का निम्नलिखित सूत्र उद्धृत किया हैमोहक्षयाज्ज्ञान दर्शनावरणान्तराय क्षयाच्च केवलम् ।
॥१०-१॥ अर्थ-मोहनीय कर्म के क्षय से तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के क्षय से केवल ज्ञान होता है।
इसके अनन्तर ही वही पर प० जी ने उक्त सूत्र के अर्थ के विषय मे अपना मन्तव्य निम्न प्रकार प्रगट किया है
"वहाँ पर केवल ज्ञान की उत्पत्ति का हेतु क्या है ? इसका निर्देश करते हुए यह बतलाया गया है कि वह मोहनीय कर्म के क्षय के बाद ज्ञानावरणादि तीन कर्मो के क्षय से होता है। यहाँ पर क्षय का अर्थ प्रध्वसाभाव है अत्यन्ताभाव नही, क्योकि किसी भी द्रव्य का पर्यायरूप से ही नाश होता है द्रव्य रूप से नही । अब विचार कीजिये कि ज्ञानावरणादि रूप जो कर्म पर्याय है उसके नाश से उसकी अकर्मरूप उत्तर पर्याय प्रगट होगी कि जीव की केवल ज्ञानपर्याय प्रगट होगी? एक वात और है वह यह कि जिस समय केवलज्ञानपर्याय प्रगट होती है उस समय तो ज्ञानावरणादि कर्मों का अभाव ही है
और अभाव को कार्योत्पत्ति मे कारण माना नही जा सकता है। यदि अभाव को कार्योत्पत्ति मे कारण माना जाय तो खरविषाण या आकाश कुसुम को भी कार्योत्पत्ति मे कारण मानना पडेगा। यदि कहो कि यहाँ पर अभाव से सर्वथा अभाव नही लिया गया है किन्तु भावान्तर स्वभाव अभाव लिया गया है तो हम पूछते है कि वह भावान्तर स्वभाव अभाव क्या वस्तु है ? उसका नाम निर्देश होना चाहिये । यदि कहो कि यहाँ पर भावान्तर स्वभाव अभाव से ज्ञातावरणादि कर्मो की अकर्म रूप उत्तर पर्याय