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________________ २२२ रूप पुरुपार्थ अर्थात् पुण्याचरण रूप व्यवहार तब तक उपादेय है जव तक जीव समस्त आरम्भी पापो से निवृत्तिरूप व्यवहार धर्म की पूर्णता प्राप्त नही कर लेता है और जब वह जीव यथारुयान चारित्ररूप निश्चय धर्म को प्राप्त कर लेता है तो व्यवहार धर्म को उपयोगिता समाप्त हो जाती है। यहाँ इतना विशेप समझ लेना चाहिये कि वाह्य मे व्यवहार धर्म की उपयोगिता षष्ठ गुणस्थान तक ही दृष्टि में आती है लेकिन अन्तरगवृत्ति के आधार पर जीव मे व्यवहार धर्म की पूर्णता दशम गुणस्थान के अन्त समय मे जव सूक्ष्म लोभ का भी अभाव हो जाता है तभी हुआ करती है । यह जो विवेचन यहाँ किया गया है इससे स्पष्ट हो जाता है कि प० फूलचन्द्रजी को व्यवहार को या व्यवहार धर्म को सर्वथा हेय बतलाने से पूर्व इन सब बातो पर गम्भीरतापूर्वक विचार कर लेना चाहिये था जवकि वे आगम के अच्छे विद्वान हैं । जैन तत्त्वमीमासा मे एकागी वर्णन करके उन्होने अपनी आगमज्ञता को तो बट्टा लगाया ही है साथ ही अपना और दुसरो का वडा भारो अहित किया है। अव भी उन्हें इस पर गम्भीरता के साथ विचार करना चाहिये । ___ अब यहां पर आगे जैनतत् मोमामा मे वणित अन्य वातो पर विचार किया जाता है (१) पं० फूलचन्द्र जी का मत है कि कार्योत्पत्ति मे निमित्त सार्थक न होकर निरर्थक ही है । उन्होंने अपने इरा मत की पुष्टि के लिए जैनतत्त्वमीमासा के विपय प्रवेश प्रकरण में
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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