SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०४ अनादिकाल से ही समान क्षयोपशम रहता आया है इसलिये जोव मे इन शक्तियो का यथायोग्यरूप मे अनादिकाल से ही समान विकास रहता आया है । विकास को प्राप्त इन तीनो शक्तियो मे से ज्ञानशक्ति का जितना विकसित उपयुक्ताकाररूप अनादिकाल से जीव मे रहता आया है उसे दर्शन मोहनीय कर्म का उदय अनादिकाल से ही विकृत वनाये हुए चला आ रहा है जिसका परिणाम यह हुआ है कि विकास को प्राप्त उपयुक्ताकाररूप वह ज्ञानशक्ति मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान का रूप धारण किये हुए अनादिकाल से हो रहती आयी है। भाववती शक्ति की तरह जीव की क्रियावती शक्ति भी अनादिकाल से यथासम्भव पौद्गलिक मन, वचन और काय की अधीनता मे क्रियाशील रहती आयी है ओर उमकी (नियावती शक्ति की) वह क्रिया भी अनादिकाल से चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होकर मिथ्याचारित्र का रूप धारण किये हुए रहती आयी है । तात्पर्य यह है कि जीव को यथायोग्य विकास को प्राप्त उपयुक्तकार ज्ञानरूप भाववती शक्ति तो दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होकर अनादिकाल से मिथ्यादर्शन व मिथ्याज्ञान का रूप धारण किये हए है और उसकी (जीव की) यथासम्भव मन, वचन तथा काय की अधीनता मे क्रियाशील होती हई क्रियावती शक्ति भी चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से प्रभावित होकर अनादिकाल से मिथ्याचारित्र का रूप धारण किये हुए है। जैन सिद्धान्त मे इससे आगे की व्यवस्था यह है कि जिस जोव मै दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy