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________________ २०३ उसी प्रकार उसके ( मोहनीय कर्म के ) उपशम, क्षय और क्षयोपगम के आधार पर जीव के स्वभावभूत उक्त दर्शन, ज्ञान और चारित्र की सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्ररूप भी परिणति हुआ करती है । लेकिन यहा इतना ध्यान रखना चाहिये कि मोहनीय कर्म का उदय जिस प्रकार कर्मों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध मे कारण होता है उस प्रकार मोहनीय कर्म के क्षयोपशम मे रहने वाला उसके (मोहनीय कर्म के) अश का उदय तो उक्त कर्मों के स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध मे कारण होता है परन्तु मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय या मोहनीय कर्म के क्षयोपशम मे रहने वाला उसके ( मोहनीय कर्म के ) अश का अनुदय ( वर्तमान काल मे उदय आने योग्य अशो का उदयाभावी क्षय तथा आगामी काल मे उदय आने योग्य अशो का सदवस्थारूप उपशम ) उक्त स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध का कारण नही होता है । इस विषय का विशेष विवरण इस प्रकार है कि जीव में स्वभावरूप से दो प्रकार की शक्तिया अनादिकाल से विद्यमान रही है और अनन्तकाल तक विद्यमान रहेगी। उनमे एक तो भाववती शक्ति है और दूसरी क्रियावती शक्ति है । उक्त दोनो प्रकार की शक्तियो मे से भाववती शक्ति के रूप तीन हैं एक दर्शन, दूसरा ज्ञान और तीसरा वीर्य तथा इन तीनो मे से दर्शनशक्ति को दर्शनावरण कर्म अनादिकाल से आवृत किये हुए है, ज्ञानशक्ति को ज्ञानावरण कर्म अनादिकाल से आवृत किये हुए है और वीर्यशक्ति को वीर्यान्तराय कर्म अनादिकाल से आवृत किये हुए है । इतना अवश्य है कि उक्त दर्शनावरण, ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मों का जोव मे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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