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स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय परिणमन ( उत्पाद और व्यय ) भेदाश्रित अथवा पराश्रित होने के कारण व्यवहार कोटि मे तो समाविष्ट होते हैं फिर भी वे काल्पनिक, मिथ्या या कथन मात्र नही हे किन्तु सद्भूत ही हैं। प्रत्येक शुद्ध ( पृथक्-पृथक् रूप मे विद्यमान ) और अशुद्ध ( परस्परवद्ध ) वस्तु के ऐसे सभी व्यवहाररूप परिणमन ( उत्पाद और व्यय ) न तो हेय हैं और न ये नष्ट ही होते है । अर्थात् प्रत्येक वरतु मे अनादिकाल से होते आ रहे है और अनन्तकाल तक होते जावेगे। क्योकि ये नष्ट हो जावे तो वस्तु का ही लोप हो जायगा।
इस सम्बन्ध में एक तर्क यह भी है कि अशुद्ध अर्थात् पौद्गलिक कर्म तथा नोकर्म के साथ बद्धछमस्थ संसारी जीवो के स्वभावभूत ज्ञान और दर्शन में विकास की अल्पता और परावलम्बनता पायी जाने पर भी उनमे से जो जीव जब एकादश या द्वादश गुणस्थान मे पहुँच कर ज्ञाता-दृष्टामात्र वने रहने की क्षमता प्राप्त कर लेते है तब उनमे नवीन कर्मों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध न होने का जो विधान आगम मे है उसका आगय यही है कि देखने और जानने स्प परिणमन अल्पविकास और परावलम्बन की दशा में भी जीव के स्वभावभूत परिणमन होने के कारण उसके लिये उक्त वन्धो के कारण नहीं होते हैं। इस तरह केवल मन, वचन और कायरूप नोकर्म तथा मिथ्यात्व, अविरति और कपाय से यथासम्भव आवह प्रथम गुगल्यान से दगम गुगस्यान तक के जीवी का योगात्मक प्रवर्तन और उपयोग की कलुपता-ये ही यथायोग्य कर्मों के प्राति बन्ध, भीर प्रदेदावन्य तथा स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध के कारण होते है व एकादश द्वादा और योदश गुणस्थानो मे जीयो या केवल योगात्मक प्रवर्तन ही मान प्रतिबन्ध और