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________________ १६२ प्रकार बतलाया गया है कि आकाश द्रव्य के स्वत सिद्ध प्रतिनियत अवगाहक स्वभाव मे उसके साथ सस्पृष्ट हो रहो विश्व की अन्य समस्त अवगाह्यमान वस्तुओ के अपने-अपने प्रतिनियत कारणो के आधार पर होने वाले परिणमनो के अनुसार विविध प्रकार के स्वपरप्रत्यय परिणमन ( उत्पाद और व्यय) हो रहे है तथा धर्म, अधर्म और काल द्रव्यो के अपनेअपने स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव मे भी आकाश के समान ही अन्य यथायोग्य वस्तुओ के अपने-अपने प्रतिनियत कारणो के आधार पर होने वाले परिणमनो के अनुसार विविध प्रकार के स्वपरप्रत्यय परिणमन ( उत्पाद और व्यय ) हा रहे हैं । इसी प्रकार की उत्पाद और व्यय की प्रक्रिया जीवो ओर पुद्गलो के अपने-अपने स्वत सिद्ध प्रतिनियत स्वभाव मे भी अन्य वस्तुओ के अपने-अपने प्रतिनियत कारणों के आधार पर होने वाले परिणमनो के अनुसार विविध प्रकार के स्वपरप्रत्यय परिणमनो के रूप मे चालू है । अर्थात् छद्मस्थ जीवो को परपदार्थों का ज्ञान करते समय कभी तो घटसापेक्ष घटज्ञान होता होता है और कभी पटसापेक्ष पटज्ञान होता है तथा जीवन्मुक्त और सर्वथामुक्त सर्वज्ञता प्राप्त जीवो को भी समस्त पदार्थ साक्षात्कार रूप वोध समस्त पदार्थसापेक्ष ही हुआ करता है । इसी प्रकार आम्रादि पुद्गल स्कन्धो मे और अररूप पुद्गलद्रव्यो मे भी रूपान्तर, रसान्तर, गन्धान्तर और स्पर्शान्तर रूप तथा पूरण- गलन स्वभाव के अनुसार उनमे अणु से स्कन्धरूप व स्कन्ध से अरणुरूप परिणमन ( उत्पाद और व्यय) स्वपरप्रत्ययरूप में ही होते रहते है । इस प्रकार अशुद्ध (परस्परवद्ध) और शुद्ध (पृथक्-पृथक् रूप मे विद्यमान) वस्तुओं मे सतत प्रवर्तमान स्वभावभूत
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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