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________________ १८४ प्रवर्तमान स्वप्रत्यय व स्वपरप्रत्यय परिणमनो की अपेक्षा विद्यमान उत्पाद तथा व्यय का नाम व्यवहार है । जैनदर्शन मे 'वस्तु को जैसा उत्पाद, व्यय और प्रोव्यात्मक माना गया है वैसा ही सामान्य विशेषात्मक भी माना गया है। इस तरह वस्तु की या वस्तु स्वरूप की सामान्यम्पता का नाम निश्चय है और उनकी विशेषरूपता का नाम व्यवहार है । इसी तरह वस्तु की उसके अपने प्रदेशो के साथ विद्यमान अखण्डात्मकता का नाम निश्चय है और नाना प्रदेशो के रूप में विद्यमान खण्डात्मकता का नाम व्यवहार है । इस तरह प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध मे निश्चय और व्यवहार के अनेक विकल्प सिद्ध हो जाते हैं । जैसे---- द्रव्य और गुण मे विद्यमान अभेदरूपता का नाम निश्चय है और भेदरूपता का नाम व्यवहार है । द्रव्य और पर्याय के विकल्पो में द्रव्यरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता व्यवहार है । गुण और पर्याय के विकल्पो मे गुणरूपता निश्चय है और पर्यायरूपता व्यवहार है । सहवर्तित्व और क्रमवर्तित्व, अन्वय और व्यतिरेक तथा यौगपद्य और क्रम के विकल्प युगलो मे पूर्वपूर्व का विकल्प निश्चयरूप है और उत्तर- उत्तर का विकल्प व्यवहार रूप है । निर्विकल्पकता और सविकल्पकता, शक्तिरूपता और व्यक्तिरूपता प्रथा लब्धिरूपता और उपयोगरूपता के विकल्पयुगलो में पूर्व - पूर्व का विकल्प निश्चयरूप है और उत्तर-उत्तर का विकल्प व्यवहाररूप है । वास्तविकता और कल्पितरूपता, अनुपचरितता और उपचरितता, भावरूपता और अभावरूपता तथा स्वभावरूपता और विभावरूपता के विकल्प युगलो मे पूर्व- पूर्व का विकल्प निश्चय रूप है और उत्तर-उत्तर का विकल्प व्यवहाररूप है । भावरूपता और द्रव्यरूपता तथा अन्तरङ्गरूपता और बहिरङ्गरूपता के विकल्पयुगलो पूर्व - पूर्व का विकल्प निश्चयरूप है और उत्तर-उत्तर का
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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