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________________ १८३ और उसकी दर्शन, ज्ञान और चारित्रात्मक भेद स्थिति को व्यवहार कोटि मे समाविष्ट किया गया है । यथा ण वि होदि अप्पमत्तोण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एष भगति सुद्ध गाओ जो सो उ सो चेव ||६|| ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित दसणं गाणं । ण वि णारण रण चरितं ण दसणं जागो सद्धो ॥७॥ अर्थ -- आत्मा स्वरूप की दृष्टि (निश्चय दृष्टि) से प्रमत्तता और अप्रमत्तता से रहित ज्ञायकस्वरूप है और उसका यह ज्ञायक रूप स्वतः सिद्ध होने से स्वतन्त्र, अनादिनिधन और अखण्ड है । इस ज्ञायक रूप से यद्यपि व्यवहारदृष्टि से ( भेददृष्टि से ) दर्शन, ज्ञान और चारित्र की स्थिति को भी मान्य किया गया है परन्तु निश्चयदृष्टि से ( अभेददृष्टि से ) न दर्शन की स्थिति है, न ज्ञान की स्थिति है और न चारित्र की स्थिति है केवल सुद्ध (स्वतन्त्र, अनादिनिधन और अखण्ड) ज्ञायक रूप ही स्थिति है । प्रथम और द्वितीय दोनो गाथाओ मे पठित 'मुद्ध' शब्द को आत्मा के स्वरूप ज्ञायकत्व मे विद्यमान अखण्ड एकत्व, अनादिनिधनत्व और आत्मनिर्भरता के रूप मे निश्चयार्थ का चोधक जानना चाहिये । इस प्रकार प्रथम गाथा और द्वितीय गाथा का उत्तरार्व दोनो आत्म स्वरूप की निश्चय स्थिति के प्रतिपादक है तथा दूसरी गाथा का पूर्वार्द्ध उसकी व्यवहार स्थिति का प्रतिपादक है वस्तु मे उसके स्वत सिद्ध स्वरूप सामान्य की अपेक्षा विद्यमान त्रैकालिक ध्रुवता का नाम निश्चय है और उसमे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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