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________________ १४१ अर्थपर्यायों के भी स्वप्रत्यय और स्वपरप्रत्यय ऐसे दो भेद जानना चाहिये । पूर्व कथनानुसार यह भी जानना चाहिये कि अगुरुलघु गुण के शक्त्यशो ( अविभागि प्रतिच्छेदो) मे षड्गुण हानि वृद्धिरूप स्वभाव या गुणपर्याये ही स्वप्रत्यय अर्थपर्याये है तथा इन्हे छोड कर जितनो स्वभाव या गुणपर्याये है वे सब स्वपरप्रत्यय अर्थपर्याये है। जैसे आकाश उन सब पदार्थों को अवगाहित कर रहा है जो विश्व मे विद्यमान है लेकिन आकाश का पदार्यों को अवगाहित करने का स्वभाव असीमित है अर्थात् विश्व मे जितने पदार्थ विद्यमान है उनसे भो अनन्तगुरणे पदार्थ यदि विद्यमान होते तो उन्हे भी आकाश अपने अन्दर अवगाहित कर सकता है । इससे जाना जाता है कि आकाश का पदार्थों को अवगाहित करने रूप परिणमन पदार्थाधीन होने से स्वपरप्रत्यय है । यही वात धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य और जीवद्रव्य के स्वभाव के विषय में भी जान लेना चाहिये । मैं पूर्व मे वतला चुका हूँ कि प० फूलचन्द्रजी केवलज्ञान के विषय मे स्वय यह वात स्वीकार करते है कि केवलज्ञान मे विश्व के समस्त विद्यमान पदार्थो से अनन्तगुरणे पदार्थो को जानने की योग्यता रहते हुए भी केवल उन्ही पदार्थों को जानता है जो पदार्थ विद्यमान है। इस तरह अविद्यमान पदार्थ को न जानने का कारण केवलज्ञान मे उस जाति की योग्यता का अभाव नहीं है किन्तु पदार्थों का असद्भाव ही उसमे कारण है। आगम भी यही बतलाता है। उपर्युक्त कथन के अनुसार यह निष्कर्ष निकल आता है कि प्रत्येक वस्तु का परिणमन करने का स्वभाव तो असीमित ही होता है परन्तु वे परिणमन यदि परसापेक्ष हो तो उनमे से उसका वही परिणमन होगा जिसके अनुकूल पर की सहायता
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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