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१३३ साथ बद्ध होने की योग्यता नही रखते है वे आगे चल कर उस योग्यता को भी प्राप्त कर लेते है। जैसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप से परिणत पुद्गल अपनी वर्तमान स्थिति मे यद्यपि एक दुसरे रूप परिणत नही हो सकते है परन्तु आगे चलकर उस योग्यता का सम्पादन कर वे परस्पर एक दूसरे रूप भी परिणत हो जाया करते है। यही कारण है कि जैन दर्शन मे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु रूप से परिणत होने वाले स्वतन्त्र स्वतन्त्र पूदगल नही स्वीकार किये गये है। इसी प्रकार कोई भी पुद्गल कभी कर्मवर्गणा की और कभी नौकर्मवर्गणा की योग्यता सम्पादन कर जीव का निमित्त पाकर कर्मरूप और नोकर्मरूप परिणत हो जाया करते है।
पुद्गलद्रव्यो का जितना वस्तु विज्ञान की दृष्टि से विवेचन किया जा सकता है वह तत्त्वार्थ सूत्र के पचम अध्याय मे निम्नलिखित सूत्रो के आधार पर किया गया है । ___"स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त पुद्गला ॥ २३ ।।, शब्दवन्धसौक्ष्म्य स्थौल्यसस्थानभेदतमश्छायातपोद्यतवन्तश्च ॥ २४ ।।, अणव स्कन्धाश्च ।। २५ ।।, भेदसघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥, भेदादणु ॥ २७ ॥, भेदसघाताभ्याचाक्षुष ॥ २८ ॥, स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्ध ।। ३२ ॥, न जघन्यगुणानाम् ।। ३३ ।।, गुणसाम्ये सदृशानाम् ।। ३४ ।।, द्वयधिकादिगुणाना तु ॥३५॥ वन्धेऽधिको पारिणाम कौ च ।। ३६ ।।"
अर्थ-पुद्गल रूप, रस, गन्ध और वर्ण वाले होते है। शब्द, बन्ध, सीक्ष्म्य, स्थौल्य, सस्थान, भेद, तम, छाया, आतप और उद्योत ये उनकी पर्याय हैं । वे पुद्गल अणु और स्कन्ध के भेद से दो प्रकार के होते है। इन दोनो प्रकार के पुद्गलो का