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________________ प्रकार की विशेषता रहने के कारण भव्यो मे भी विशेषता हो जाती है । अर्थात् जिन ससारी जीवो का भव्यत्व अनन्तकाल तक अपने स्वाभाविक भव्यत्वरूप में ही रहने वाला है वे तो हमेशा भव्य ही रहने वाले है और जिनका भव्यत्व परिवर्तित होने वाला है वे मुक्त हो जाने वाले है । इम प्रकार जिनका भव्यत्व परिवर्तित हो चुका है वे भव्य तो मुक्त हो चुके है और जिनका भव्यत्व परिवर्तित होने वाला है वे भी यथा काल मुक्त हो जायेंगे । 33 तात्पर्य यह है कि "भविष्यतीति भव्य इस व्यत्पत्ति के अनुसार जो ससारी जीव अभी तक नही प्राप्त हुई मुक्ति या मुक्ति की साधनभूत सम्यग्दर्शनादिरूप पर्याय को आगामीकाल मे अनुकूल निमित्तो के प्राप्त होने पर प्राप्त कर सकते हैं अथवा जो ससारी जीव अभी तक नही नष्ट हुए ससार या ससार के साधनभूत मिथ्यादर्शन आदि को आगामीकाल मे अनुकूल निमित्तो के प्राप्त होने पर नष्ट कर सकते हैं उन्हें ही भव्य सज्ञा दी गयी है | इससे सिद्ध होता है कि मुक्ति या मुक्ति के साधनभूत सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति का अथवा ससार या ससार के साधनभूत मिथ्यादर्शन आदि के नाश का भविष्यत्पना ही यहा भव्यत्व शब्द का अर्थ लिया गया है लेकिन जिस प्रकार काल के भविष्यत् समय एक-एक करके अपनी भविष्यत्ता को समाप्त करके वर्तमान होकर भूत होते जाते हैं फिर भी भविष्यत् समय का कभी अन्त नही होने वाला है उसी प्रकार भव्य जीव भी मुक्ति या मुक्ति के साधनभूत सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति के अनुकूल निमित्त मिलने पर मुक्ति या सम्यग्दर्शन आदि को प्राप्त करते जाते हैं अथवा ससार या ससार के साधनभूत मिथ्यादर्शन आदि के नाश के अनुकूल निमित्त मिलने पर ससार
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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