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शक्त्यशों मे जो अनन्तभागवृद्धि, असख्यातभागवृद्धि, सख्यातभागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि इन छह भेदरूपवृद्धि तथा अनन्तभागहानि, असख्यातभागहानि, सख्यात भागहानि, सख्यातगुणहानि, असख्यात - गुणहानि और अनन्तगुणहानि इन छह भेदरूपहानि सतत हुआ करती है इसी का नाम स्वसापेद्यपरनिरपेक्ष परिणमन है क्योकि यह परिणमन परवस्तु को सहायता के विना अपने आप हो सतत होता रहता है ।
ra यदि इस पड्गुणहानिवृद्धि रूप परिणमन मे कार्यकारणभाव व्यवस्था को स्थान दिया जाय तो उसकी सगति इसमे स्वापेक्षता विद्यमान रहने के कारण यद्यपि उपादानोपादेयभाव के आधार पर विठलाई जा सकती है, परन्तु कार्यकारणभाव व्यवस्था की उपयोगिता यहा पर कुछ भी नही है क्योकि प्रत्येक वस्तु के इन पड्गुणहानिवृद्धिरूप परिणमनो मे ऐसी कोई भी विलक्षणता नही पायी जाती है जिसको लक्ष्य में रख कर कार्यकारण व्यवस्था पर विचार करना आवश्यक हो जाय । इसलिये इस सम्बन्ध मे अधिक विचार न करके अब स्वपरसापेक्ष परिणमन के सम्बन्ध मे विचार किया जाता है ।
स्वपरसापेक्ष परिणमन के सम्बन्ध में विवेचन
प्रत्येक वस्तु के स्वपरसापेक्ष परिणमन के सम्बन्ध मे विचार करने से पूर्व में यह बतला देना चाहता हू कि इन परिणमनो को कार्यकारणभाव व्यवस्था की उपयोगिता और अनुपयोगिता के आधार पर दो भागो मे विभक्त किया जा सकता है । अर्थात् एक प्रकार का स्वपरसापेक्ष परिणमन ऐसा होता है जिसमे परसापेक्षता के विद्यमान रहने के कारण