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(३७) मोक्ष की सिद्धि के लिये वारह प्रकार की तपस्या* भी बताई हुई है। जिसके अनशनादि छः बाह्य और प्रायश्चित्तादि छा आभ्यन्तर भेद हैं। इन बाह्याभ्यन्तर तपस्याओ के करने से जो कर्म का नाश होता है उसको निर्जरा कहते हैं। वह निर्जरा दो प्रकार की है-एक सकामनिर्जरा, दूसरी अकामनिर्जरा । अकामनिर्जरा प्राणिमात्र को होती है किन्तु सकामनिर्जरा मोक्षाभिलापी प्राणियों को ही होती है और सकामनिर्जरा करनेवाले जीव शीघ्र मोक्षगामी होते हैं। जैनेतर तामली, पूरण, कमठादि तापस भी सकामनिर्जरावान् माने गये हैं, क्योंकि पूर्वोक्त अनशनादि बाह्य तप को ये लोग भी करते थे। जैननामधारी होके जो कर्मक्षयनिमित्तक पूर्वोक्त तपस्या को नहीं करेंगे, वे सकामनिर्जरा के भागी नहीं होंगे। इस बात को जैनाचार्यों ने स्पष्टरूप से कहा है। इनके लिये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य चार प्रकार की भावनाओं के बतानेवाले तीर्थकर महाराजों ने स्वयं इन भावनाओं को चण्डकौशिक .. योगशास्त्र के चौथे प्रकाश में लिखा हुआ है.
अनशनमौनोदर्य, वृतेः संक्षेपणं तथा। रसत्यागस्तनुक्लेशो लीनतेति वहिस्तपः ॥८९॥ प्रायश्चित्तं वयावृत्त्य स्वाध्यायो विनयोऽपि च । व्युत्सर्गोऽथ शुभं ध्यानं पोढेत्याभ्यन्तरं तपः ॥२०॥