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२ सूनृत [ सत्य ] व्रत, प्रिय हितकारक वाक्य को कहते हैं; न कि जिससे किसी जीवपर आघात पहुॅचे, या कटु हो ।
३ अस्तेय व्रत वह है, जिसमें किसी प्रकार की चोरी न हो; क्योंकि मनुष्यों के बाह्य प्राण धनही हैं उसके हरण करने से मनुष्य के प्राणही हत होते हैं ।
४ ब्रह्मचर्यव्रत - देव, मनुष्य और तिर्यञ्च से उत्पन्न होनवाले १८ प्रकार के कामों से मन, वचन तथा काय से निवृत्त होना और करनेवालों को सहायता नहीं देना, यह कहलाता है ।
५ अपरिग्रहव्रत, सर्वपदार्थों में ममत्व बुद्धि के त्याग को कहते हैं; क्योंकि असत् पदार्थों में भी मोह होने से चित्तभ्रम होता है ।
मूलगुण के रक्षण के लिये उत्तरगुण [ अष्टप्रवचनमाता के नाम से व्यवहृत ] पाँच समिति और तीन गुप्ति कहलात हैं । जिनके नाम ईर्यासमिति, भाषासमिति, एपणासमिति, आदाननिक्षेपसमिति, पारिष्ठापनिकासमिति और मनोगुप्ति, वचनगुप्ति तथा कायगुप्ति है ।
ईर्यासमिति, बराबर युगमात्र [ साढ़े तीन हाथ ] दृष्टी देकर उपयोगपूर्वक चलने को कहते हैं । समिति शब्द का अर्थ सम्यक् प्रकार की चेष्टा है ।