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साधु को भिक्षामात्र से जीवन बतलाने का कारण यह है कि महाव्रत को धारण करनेवाला धीर होने पर भी यदि आहार बनाने का आरम्भ समारम्भवाला होगा तो महाव्रतका पालक और धीर होना व्यर्थ है । क्योंकि आहार की पचन, पाचनरूप क्रिया करनेवाला पुरुष अहिंसा धर्मकी रक्षा नहीं कर सकता, वल्कि वह महा उपाधिवाला गिना जाता है । तात्पर्य यह है कि भिक्षा मात्र से जीवन करना साधु के लिये महा गौरव है । किन्तु संसार में भिक्षावृत्ति को आजकल तीन पुरुष करते हैं-याने एक तो निरुत्साही और लोभी होने से भिक्षा को मांगता है, दूसरा दरिद्र होने से धर्म के नाम से भिक्षा मांगनेवाला है, और तीसरे वे महानुभाव हैं, जो स्वयं पचनरूप पाप को न करके दूसरे को भी अपने लिये करने की आज्ञा नहीं देते; वल्कि आत्मकल्याण के लिये ही रातदिन शुभ ध्यान से भावितात्मा रहते हैं । इसीलिये पापभीरु साधु को तो निर्दोष भिक्षा भूषण ही है, लेकिन अपने हाथ से पचन पाचनादि क्रिया करनेवाले, संग्रही पुरुषों को भिक्षा लेने का अधिकार ही नहीं है । वस्तुतः तो शरीर को धर्म का साधन समझकर भोजन उसको किराये की तरह दिया जाता है, इसलिये उसमें दूसरी कोई अभिलाषा नहीं है; क्योंकि • भिक्षा ( मधुकरी ) से प्राप्त आहार स्वादिष्ठ और यथेच्छ नहीं मिलता, जैसा कि स्वयं बनाने या निमन्त्रणमें मिलता है । अत एव केवल किसी तरह उदर को भर* निर्जितमदमदनानां मनोवाक्कायविकाररहितानाम् । विनिवृत्त पराशाना मित्र मोक्षः स्यात् सुविहितानाम् ॥१॥