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________________ (२१) - पञ्चेन्द्रिय जीव के गर्भज और संमूर्छिम दो मूलं भेद हैं। उनमें जो गर्भाशय (जरायु) से जन्म लेते हैं वे गर्भज कहे जाते हैं, और स्वयं, याने नो विना माता पिता से उत्पन्न होते हैं, वे समूच्छिम जीव कहलाते हैं। जैसे मेंढक, मछली, कछुए आदि माता पिता से, और स्वयं भी उत्पन्न होते हैं। किन्तु स्वयं उत्पन्न होनेवालों के मन नहीं होता; इसलिये उनके नव ही प्राण माने गये हैं; और जो गर्भ से उत्पन्न होते हैं उनके दश प्राण होते हैं। यहाँ पर यह शङ्का उत्पन्न होती है कि मन के विना उन जीवों की प्रवृत्ति और निवृत्ति कैसे हो सकती है। इसका उत्तर यही है कि समस्त जीवों की आहारचेष्टा, भयचेटा, मैथुनचेष्टा और परिग्रहचेष्टारूप से चारही चेष्टाएँ (संज्ञा) मानी गई हैं और वे चेष्टाएँ एकेन्द्रिय जीवा को भी होती हैं इसीसे वे आहारादि फा ग्रहण करलेते हैं। प्राण पुद्गलरूप है और उसके नाश करने से हिंसा होती है। क्योंकि उसके नाश में जीव को दुःख उत्पन्न होता है, और अन्य प्राणी को रागद्वेष से दुःख पहुँचाना ही हिंसा है, यह हम पहिले ही कह चुके हैं । इसीसे तत्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि " प्रमादात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा"। इसी हिंसा को त्याग करने के लिये भव्य जीव गृहादि को छोड़कर साधु होजाते हैं और अहिंसा व्रत की रक्षा करने के लिये कदापि मिथ्या नहीं बोलते, क्योंकि झूठ बोलने से मनुष्य को दुःख उत्पन्न होता
SR No.010365
Book TitleJain Shiksha Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages49
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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