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इस रीति से सर्वज्ञ भगवान् में अठारह दूषणों का अभाव युक्तिसिद्ध कहा गया है । और इसी तरह अष्टकर्मोंका अभाव जब उनमें होता है तभी वे अन्तिम शरीर का त्याग करके मुक्ति को प्राप्त होते हैं और तभी सिद्ध गिने जाते हैं ।
देहयुक्तदशा में तीर्थंकर अर्हन् देव कहे जाते हैं और देहमुक्तदशा में सिद्ध गिने जाते हैं । इस समय चौवीसवें तीर्थंकर श्रीमहावीर स्वामी का शासन पालित होता है, क्योंकि उनके उपदेशानुसारही वीरप्रभु के अनुयायी लोग चलते हैं । अब आगे भी तीर्थकर वही हो सकता है जो तीर्थकर होने के योग्य तीर्थंकरनामकर्म को अर्जित करता है ।
कोई भी जीव क्यों न हो यदि * अरिहन्तादि बीस पद में से एक, दो, या समस्त की आराधना करके पुण्योपार्जन करे, तो वह तीर्थकरनाम कर्म बांधकर तीर्थकर हो सकता है । और जो तीर्थकरनाम रूप शुभ कर्म को भोगता है उसका फिर संसार में जन्म नहीं होता । अनेक तीर्थंकर की अपेक्षा से ईश्वर अनादि है और
* अरिहन्तसिद्धपवयणगुरुथेरवहुस्सुए तवस्सीसु ।
वच्छलया य एसिं अभिक्खनाणोवओगे अ ॥ ७ ॥ दंसणविणए आवस्सए य सीलव्वए निरइयारी | खणलaraचियाए वेयावचे समाही य ॥ ८ ॥ अपुच्चनाणगहणे सुभभत्ती पवयणे पभावणया । पपहि कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥ ९ ॥ - आवश्यक निर्युक्ति,
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