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चाहिए। उन्हें विवाहिता समझना ही अनुचित है। कहने की आवश्यकता नहीं कि विधवा समस्या का इससे बढ़कर अधिक व्यावहारिक समाधान और क्या हो सकता है? लेकिन जैनेन्द्र जहाँ अन्य समस्याओं में गाँधी जी के साथ है, वैधव्य की समस्या के सम्बन्ध में गाँधी जी के विचारों से मेल नहीं खाते। उन्होंने कट्टो से विधवा विवाह का विरोध करवाया है। वह अपने को विधवा मानकर बड़े गौरव के साथ कहती है-'विधवाओं का विवाह होता है छिः। 43 विहारी के साथ स्थापित अपने नये सम्बन्धों को कट्टों विवाह नहीं, वरन् एक प्रतिज्ञा मानती है।
स्त्री और राजनीति
__ जैनेन्द्र के कथा साहित्य में जहाँ स्त्री-पुरुष को प्रकृत रूप में स्वीकार किया गया है, वहाँ जैनेन्द्र के विचारों की मौलिकता तथा नवीनता दृष्टिगत होती है, किन्तु नारी को व्यक्तित्व प्रदान करते हुए उन्होंने उसके स्वरूप को राजनीति, समाज, परिवार आदि विभिन्न परिप्रेक्ष्यों में, विभिन्न दृष्टियों से देखा है।
जैनेन्द्र के कथा साहित्य का अध्ययन करने पर यह मालूम होता है कि अनेक नारी पात्र अत्यन्त स्वतन्त्र विचारों की हैं। उनमें भारतीय संस्कृति और मर्यादा की चेतना नहीं है, किन्तु सत्य यह है कि जैनेन्द्र के पात्र भूत का स्पर्श करते हुए भी वर्तमान में जीते हैं। अपनी संस्कृति, की वे कभी उपेक्षा नहीं करते। जैनेन्द्र के अनुसार स्त्री की पुरुष से प्रतिस्पर्द्धा उचित नहीं। उनकी दृष्टि में स्त्रियों के नौकरी करने का उद्देश्य स्वतन्त्रता और नौकरशाही का न होकर सहयोग का होना चाहिए। जैनेन्द्र के उपन्यासों और कहानिया में स्त्री-पात्रों में
42 महात्मा गाँधी - वोमेन एण्ड सोशल जस्टिस, पृष्ठ-111 43 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ -85
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