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सम्भव न हो सकने के कारण त्रिवेणी का जीवन बहुत खिन्नता और रोष में व्यतीत होता रहता है। विवाह के बाद भी उसका प्रेम नष्ट नही होता। पर प्रेमी के आने से उसकी सारी मनःस्थिति अभिभूत हो जाती है। इसमें प्रेम की पीड़ा से छूटकारे की इच्छा नहीं है। प्रेम वात्सल्य में परिणत होकर सारा का सारा अभाव भावों से भर देता है। त्रिवेणी की झुंझलाहट उसकी विपन्नता की ओर भी इंगित करती है।
निष्कर्षत: जैनेन्द्र की दृष्टि में प्रेम-विवाह उचित नहीं है, किन्तु विवाह के बाद भी प्रेम बना रहता है। प्रेम को अक्षुण्ण बनाने के लिए विछोह उपयोगी है। ऐलिस महोदय भी प्रेम-विवाह के पक्ष में नहीं है। जैनेन्द्र के विचारों से उनका स्पष्ट साम्य दृष्टिगत होता है। उन्होंने प्रेम-विवाह के निषेध हेतु समाज तथा परिवार की ओर से उत्पन होने वाली बाधाओं को आवश्यक माना है।" जैनेन्द्र के विचारों पर भारतीय संस्कृति का भी प्रभाव लक्षित होता है। जैनेन्द्र जी विवाह को मां-बाप द्वारा ही सम्पन्न होना मानते हैं और प्रेम विवाह का पूर्णतः निषेध करते हैं।
जैनेन्द्र के उपन्यास और कहानियों में प्रेम और विवाह को लेकर ही विशेष विवेचन किया गया है, किन्तु अन्तर्जातीय विवाह का सामाजिक दृष्टि से निषेध नहीं किया है। जैनेन्द्र की समस्त रचनाओं में जातिवाद को लेकर कोई समस्या नहीं उत्पन्न होती। उन्होंने कभी भी यह प्रकट नहीं किया है कि जाति-भेद के कारण विवाह सम्भव नहीं हो सकता। विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने अन्तर्जातीय विवाह को पूर्णतया स्वीकार किया है। यही कारण है कि उन्होंने जाति-भेद की समस्या को अपनी रचनाओं में गम्भीरता...से विवेचित नहीं किया। 'कल्याणी' में उन्होंने अन्तर्जातीय विवापससे मिलने वाले लाभों
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27. हेवलाक ऐलिस - यौन मनोविज्ञान, पृष्ठ -256
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