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निभाना आदि सभी तत्व प्रेम के लिए भले न हों परन्तु वे विवाह के लिए अनिवार्य हैं। सामाजिक दायित्वों से उलझा होने के नाते ही विवाह का विधान है। जैनेन्द्र परिवार के अस्तित्व का खण्डन समाज के हित में उपयोगी नहीं समझते। परिवार और विवाह समाज की बाह्य और अनिवार्य स्थितियाँ हैं। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में उत्पन्न होने वाली विषमता समाज को लेकर नहीं है, बल्कि मनुष्य की सच्चाई को लेकर प्रकट हुई है।
प्रेम और विवाह
जैनेन्द्र के साहित्य की सबसे बड़ी समस्या विवाह में प्रेम को स्वीकार करने के कारण ही उत्पन्न होती है। विवाह और प्रेम को वे जीवन सागर के दो समान्तर किनारों के रूप में मानते हैं। उनके अनुसार वैवाहिक जीवन में यदि बाहर से आने वाले प्रेम को रोक दिया जाय तो एक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। वैवाहिक जीवन विशाल है, सूक्ष्म नहीं। 'सुनीता' में पारिवारिक जीवन की उदासीनता से मुक्ति पाने के हेतु ही सुनीता और श्रीकान्त के बीच हरिप्रसन्न का प्रवेश होता है।
डॉ० लक्ष्मीकान्त शर्मा के शब्दों में "ऐसे समय हरि का द्रवित
काम अनायास ही फूट पड़ता है। वह अपने कर्तव्य को भूलकर सुनीता को समूची पा लेना चाहता है। सुनीता के निर्वसन सौन्दर्य दर्शन से हरि की दमितवासना शान्त होती है और वह सुनीता को उसके घर पहुँचाकर सदा के लिए पलायन कर जाता है। जबकि सुनीता जिसने पति के आग्रह से हरि की इच्छा के सम्मुख आत्मसमर्पण किया था, पूर्ववत् पति के प्रेम की पात्री बनी रहती है।
15 डॉ. लक्ष्मी कान्त शर्मा-जैनेन्द्र के उपन्यासों का मनोविज्ञानपरक और शैली तात्विक अध्ययन, पृष्ठ-2
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