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उद्देश्य - प्रतिफलन - शिल्प
जैनेन्द्र उद्देश्यवादी कलाकार हैं। आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने उन्हें आदर्शवादी कलाकार नहीं माना वरन् भावुक तथा कल्पना जीवी लेखक कहा है। डॉ० नगेन्द्र ने अपने लेख में कथाकारों की एक सभा आयोजित की थी जिसमें जैनेन्द्र कहते हैं- 'मेरे मन में कुछ है जो बाहर आना चाहता है और उसको कहने के लिए उपन्यास
लिख बैठता हूँ। वह है जीवन की अखण्डता की भावना । मुझे अनुभव होता है कि जीवन और जगत् जैसे मूलतः एक अखण्ड तत्व है। आज इसकी अखण्डता खण्डित हुई सी लगती है, दरअसल है नहीं आज मानव इसी भ्रम में पड़कर भटक रहा है ।....... .. जीवन की कुन्जी खो गई है और कुन्जी है यही अखण्डता का मानव ।.....इसे ढूंढ़ने का साधन है केवल प्रेम, प्रेम या अहिंसा । प्रेम या अहिंसा का अर्थ है, दूसरे के लिए अपने को पीड़ा देना - पीड़ा में ही परमात्मा बसता है । मेरे उपन्यास आत्मपीड़न के साधन हैं।........ पाठक को जितनी आत्मपीड़न की प्ररेणा देते हैं, जिनका उसके हृदय में प्रेम पैदा करके जीवन की अखण्डता का अनुभव कराते हैं उतने ही सफल कहे जा सकते हैं । 170
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उद्देश्य 'प्रति फलन' पतन की दृष्टि से लेखक का कथावस्तु चयन उल्लेखनीय है । वह इसमें सूझ बूझ से काम लेता है। कथानक की अंतिम परिणति भी लेखक की उद्देश्यवादी दृष्टि के अनुरूप हुई है । 'त्यागपत्र' का अंत जज रामदयाल के रूप में कथाकार के दृष्टिकोण का परिचायक है। त्यागपत्र पर सही करना समाज के मान्यताओं तथा आदर्शों के खोखलेपन का परिचायक है, मानो जज राम दयाल सहमत हैं कि समाज में वह रहता है अथवा जिसका वह
169 आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी - आधुनिक साहित्य, पृष्ठ - 209 170 डॉ० नगेन्द्र - आस्था के चरण, पृष्ठ - 299-300
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