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लेकिन उनके सारे भेद और सारे स्नेह को () पलकें मजबूती से ढके हुए हैं। क
भाषा की रूपायन क्षमता बनाने में जैनेन्द्र की पैनी दृष्टि तथा सूक्ष्म पर्यवेक्षण भी योग देते हैं। वे वातावरण, वस्तु या व्यक्ति की छोटी सी छोटी बात भी अंकित कर देते हैं। 'सुखदा' में कान्त-सुखदा रात भर नयीं बोलते, प्रातः काल सुखदा कमरे में जाती है, कमरे के वर्णन में लेखक यह कहना नहीं भूलता - - ' बराबर तिपाई पर सिगरेट का टुकड़ा धुँआ देते-देते गद्दे पर रखा बुझ गया था। 17
जैनेन्द्र की भाषा की रूपायन-शक्ति का रहस्य उनकी बिम्व योजना है। मूल संवेदना - बिम्ब को साकार करने के लिए ही भाषा का माध्यम ग्रहण किया जाता है। जैनेन्द्र अनेक कौशलों का प्रयोग कर इन बिम्बों को सामने लाते हैं। आहत अभिमान से झुंझलाए व्यक्ति के लिए कहा है 'उसका मन अन्दर ही अन्दर झुंझला रहा था जैसे उसे हार मिली हो, उसकी बुद्धि के फन को छेड़ दिया गया हो।
कथाकार जैनेन्द्र जैनेन्द्र कहीं-कहीं चाक्षुष, सुनने तथा सम्पर्क संवेदनाओं के माध्यम से अपनी भाषा की क्षमता का परिचय देते हैं। इस सन्दर्भ में एक उदाहरण प्रस्तुत है- 'रेशमी साड़ी की धानी आभा ही काँपती हुई झलमल, झलमल हरि प्रसन्न की आँखों में रह गयी और उसके कानों में साड़ी की तरह पर्तों को छूकर जाती हुई समीर की सरसराहट भरने लगी। मानो कुछ हौले-हौले बज रहा हो। कुछ भीना - भीना बरस रहा हो और भीतर से उसे भिगो रहा हो । 129
126 जेनेन्द्र कुमार परख, पृष्ठ 127. जैनेन्द्र कुमार - सुखदा, पृष्ठ 128 जेनेन्द्र कुमार विवर्त, पृष्ठ 129 जैनेन्द्र कुमार सुनीता, पृष्ठ
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