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जैनेन्द्र के पात्रों में एक विशिष्ट प्रकार का अन्तर्विरोध तथा रहस्मयता पायी जाती है। आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी ने 'आधुनिक साहित्य' में अपने दो निबन्धों में मृणाल के व्यवहार की औचित्य संबंधी अनेक आशंकाएं उठाई हैं। अन्यत्र उन्होंने उनके पात्रों को निष्क्रिय माना है। 2 जैनेन्द्र के पात्र प्रायः नियतिवादी हैं। उनके कथा साहित्य में प्रायः एक दार्शनिक पात्र आवश्य रहता है। सुनीता पहले चौका वासन करने वाली है और अन्त में कितनी रहस्यमयी हो उठी है। पतियों में पुरुषोचित ईर्ष्या का अभाव है। जयन्त कश्मीर की सुषमा में भी नव परिणीता की प्रणय याचना के प्रति आकर्षित नहीं होता है। सुनीता भी एक ओर पतिव्रता का दम भरती है और दूसरी ओर हरि प्रसन्न के सम्मुख निर्वस्त्र होती है और जाते हुए हरिप्रसन्न की पद रज ग्रहण करती है। मृणाल भी जिस किसी को जब-तब ग्रहण कर लेती है तथा छोड़ देती है।
कथोपकथन शिल्प
घटना को अप्रधान बना देने पर चरित्र-चित्रण का आधार कथोपकथन मात्र रह जाता है। कथोपकथन के माध्यम से हम चरित्रों के अन्तर्जगत में प्रवेश करते हैं। उनमें उठने वाले भावावेग, उनके विचार और दृष्टिकोण को लेखक के विचारों और दृष्टिकोणों का प्रतिनिधि भी कह सकते हैं। ये भाव पात्रों की चेष्टाओं के अतिरिक्त उनकी वाणी द्वारा भी प्रकट होते हैं। जिन उपन्यासों में घटनाओं की प्रधानता रहती है उनमें भी कथोपकथन कथा विकास के साधन बनते हैं। कथोपकथन से कथा में नाटकीयता तथा रोचकता का समावेश होता है। कथोपकथन की यह परम्परा अत्यन्त प्राचीन है।
72 आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी- उपन्यासकार जैनेन्द्र, (लेख), युग चेतना-मार्च 1955 पृष्ठ-22 73 जैनेन्द्र कुमार - व्यतीत, पृष्ठ - 85-87 74 डॉ. प्रभाकर माचवे - जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व, (संपा० - सत्य प्रकाश मिलिंद), पृष्ठ-43
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