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उधर बिहारी का कल्पनाशील मन सक्रिय है। वह कट्टो के काल्पनिक चित्र को लेकर सोचना आरम्भ करता है कि वह पानी भर रही होगी x x x x x कहीं सत्य उसे पढ़ाता मिले x x x x x गाँव में रहने लगूंगा x x x x xएक झोपड़ी बनवा लूँगा x x x x x बाबूजी कहेंगे तो कहें x x x x x अंग्रेजी डिग्री खूटी पर लटका
दूंगा x x x x x कैसा मजा रहेगा x x x x x एक गाय रखूगा आदि। लेखक की पंक्ति 'इसी तरह की बहक में वह बेरोक बह चला'- इसी ओर संकेत करती है। इस दिवा-स्वप्न से बिहारी के चरित्र का उद्घाटन होता है। यह भी प्रकट होता है कि कट्टो के विषय में उसकी कैसी भावनाएँ हैं।
विभ्रम
निराधार प्रत्यक्षीकरण को विभ्रम कहते हैं। यह आत्मगत प्रक्षेपण है। इसके लिए बाह्य जगत में किसी आधार की आवश्यकता नहीं होती। व्यक्ति अपने मानसिक द्वन्द्व के कारण ही बाह्य जगत में वस्तुतः न होते हुए भी अनेक वस्तुओं को देखता-सुनता है। वह रोग की आरम्भिक अवस्था में प्रेत छायाओं अथवा फुस-फुसाहट को भ्रम कहकर टाल देता है और उन्हें सत्य नहीं मानता। किन्तु रोग बढ़ जाने पर फुस-फुसाहट की ध्वनियाँ अथवा छायाएँ इतने प्रबल रूप से उसके प्रत्यक्षीकरण पर छा जाती हैं कि वह उन्हें सत्य समझता है। हरिप्रसन्न सुनीता को जंगल में ले जाता है। प्रत्यक्षीकरण है-दल का नेतृत्व, परन्तु अचेतन में उसे समूची पाने की इच्छा है। वह उसे बाँहों में समेट लेना चाहता है। उसमें प्रेम का तीव्र प्रवाह उमड़ता है। संवेद और मन पूर्व धारणाओं से प्रायः भ्रम और विभ्रम हो जाया करते है।"
45 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ-57-58 46 William Medougali-An out line of Psycology, Page-373 47 डॉ० रामनाथ शर्मा - सामान्य मनोविज्ञान की रूपरेखा, पृष्ठ-187
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