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राय है यह भी भगवद् दयाल द्वारा बिहारी को लिखे गये पत्र से प्रकट होता है। भगवद् दयाल की सम्पत्ति का बँटवारा किस प्रकार हो, यह भी हमें पत्र से ही पता चलता है। इस प्रकार सत्यधन की क्या प्रतिक्रिया है-यह भी उसके पत्र में लिपिबद्ध है।
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में कथावस्तु के क्रमिक उद्घाटन की अनुपस्थिति हमारा ध्यान आकर्षित करती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जैनेन्द्र के कथा साहित्य में कथावस्तु है ही नही, या वे उसके विकास की ओर से उदासीन हैं, वरन् उसका मूल कारण जैनेन्द्र के कथा साहित्य की कथा वस्तु की प्रकृति है। जैनेन्द्र के उपन्यासों में घटनाएँ उपलक्षण मात्र हैं।
डॉ० देवराज उपाध्याय ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है'घटनाएँ कार्क के टुकड़े हैं, पात्रों के चेतना-प्रवाह नदी लहरें हैं, जिनके वात्याचक्र पर डूबती-उतराती हुई वे हमारा मनोरंजन करती रहती हैं। कार्क तो छोटा सा नगण्य टुकड़ा मात्र है पर नदी की लहरों की उन्मत्तता का सहारा पाकर स्वयं नदी की उन्मत्तता बन जाता है।
जैनेन्द्र ने अपने उपन्यासों के वस्तु-निबंधन तथा उपस्थापन में एकाधिक मनोवैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया है। पात्र जीवन-परिस्थिति से उद्दीप्त होकर अथवा मात्र मानसिक रूप से उत्तेजित होने के कारण स्वयं को हीनता की मनोदशा में पाते हैं। 'सुखदा' और 'व्यतीत' की कथा का विकास इसी पद्धति से हुआ है। सुखदा क्षयरोगिणी होकर अस्पताल के एकान्त से और जयन्त वर्षगांठ
21 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ-80 22 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ-120 23 जैनेन्द्र कुमार - परख, पृष्ठ-121 24 जैनेन्द्र जी के उपन्यासों में कहानी केवल निमित्त मात्र होती है (डॉ० नगेन्द-आस्था के चरण, पृष्ठ-621) 25 डॉ. देवराज उपाध्याय आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य और मनोविज्ञान, पृष्ठ-36
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