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लादे चल रही हैं। सुनीता सुखदा, भुवन मोहिनी, अनिता और कुछ सीमा तक नीलिमा की गणना इसी कोटि में की जा सकती हैं। सुनीता पति परायणा है, पति की आज्ञा से बॅधी उसके मित्र हरि प्रसन्न को जीवन की नीरसता से दूर लाकर सरसता में ले जाने का प्रयास करती है। पति को उस पर अडिग विश्वास है। सुनीता श्रीकान्त की पत्नी बनकर रहे या हरि प्रसन्न की प्रेयसी, इस दुविधा से पीडित वह परेशान और दुःखी होकर हरि प्रसन्न के सम्मुख समर्पण के लिए मन को स्थिर करने लगी और एक रात वीरान जंगल में हरि की आंखों में छलकती वासना देखकर वह दिगम्बर हो अपने को समर्पित कर देती है। सुनीता का यह साहस हरि को पराजित करता है और वह हमेशा के लिए वहां से चला जाता है। सुनीता को सफलता मिलती है। सुनीता जानती है कि उसी घर की चहारदीवारी में उसका स्थान है, वह पति-निष्ठ है और पूर्ण आस्था के साथ पति की कामना का बोझ लादे जीवन संघर्ष में सफलता पा जाती है। बहुत बड़ा साहस करके अविचलित मन से उसने अपने सतीत्व की रक्षा की है । यही सुनीता की उपलब्धि है ।
'सुखदा' की नायिका सुखदा स्वयं ही पति के घर में अपनी कल्पनाओं को तड़पता देखकर मानसिक सन्तोष का दूसरा मार्ग खोजती है। सुनीता घर से सन्तुष्ट है, पतिनिष्ठ है, किन्तु सुखदा को पति की आर्थिक स्थिति, पति की निस्साहसी, अन्तर्मुखता और सुखदा की अनुचित स्वतन्त्रता के प्रति उसका मौन आदि बातों से चिढ़ है । सुनीता में बाहर का प्रवेश घर में होता और 'सुखदा' में घर की चहारदीवारी से निकल स्वयं सुखदा बाहर आती है और अपने व्यवहार से मानसिक द्वन्द्व का कारण स्थापित करती है, पतिगृह के सब अभाव उसे लाल के कृत्रिम व्यवहार में पूरित होते प्रतीत होते हैं। उसका पति उसे अच्छे मार्ग पर लाने के लिए प्रेरित करता था परन्तु सुखदा वासना में डूबे होने के कारण अपने पति की बात जानने के लिए
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