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अध्याय-5
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में
मनोवैज्ञानिक चेतना
कथा साहित्य और मनोविज्ञान : अन्तर्सम्बन्ध
आधुनिक युग में मनोविज्ञान का साहित्य के विभिन्न अंग-प्रत्यंगों में समावेश हो गया है। विशेष रूप से कथा साहित्य में तो मनोविज्ञान के सिद्धान्तों, दर्शनों तथा उसके निष्कर्षों तक को भी ग्रहण किया गया है। अतः हिन्दी में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों तथा कहानियों की एक लम्बी श्रृंखला है जिनमें मनोविज्ञान के निष्कर्षों को आधार बनाकर कथानकों तथा चरित्रों का विकास प्रस्तुत किया गया है। आधुनिक हिन्दी कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिक उपन्यासों तथा कहानियों का अपना महत्वपूर्ण स्थान है।
मनोवैज्ञानिक दर्शन का मूल सिद्धान्त यह है कि मनुष्य की समस्यायें ज्यों की त्यों रहती हैं, परिवर्तन केवल रूप में होता है, क्योंकि मनुष्य मात्र में आदिम प्रवृत्तियाँ जैसे-घृणा, काम, अहं आदि आज भी उसी रूप में बने हुए हैं, जिस रूप में यह सृष्टि के आदि में थे। इन प्रवृत्तियों से ही मनुष्य का जीवन परिचालित होता है। तात्पर्य यह है कि बाह्य समस्याओं के प्रति मनोवैज्ञानिकों की ही तरह अनेक मनोवैज्ञानिक कथाकार उपेक्षा भाव रखते हैं। बाह्य परिस्थितियाँ उन्हें गतिशील नहीं दिखाई पड़तीं, क्योंकि उनका निदर्शन करने वाली शक्तियाँ ,सहज वृत्तियाँ स्थिर हैं। इसीलिए मनोवैज्ञानिक कथाकार राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था तथा संस्कृति किसी को भी महत्व नहीं
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