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ताकि उनका जीवन निर्जीव हो जाये और उनमें सजीव होने की सम्भावना ही न रह जाये। जैनेन्द्र प्रकृति के क्रिया-कलापों मे एक भावना के दर्शन करते हैं। सूर्य के प्रकाश, वृक्ष की छाया, धरती की शरण में मानव के सम्मुख जो आत्म समर्पण का भाव निहित है, उसे मानव - समझ नहीं पाता, इसलिए उसे अपना अकेलापन भारी लगने लगता है। इस भावना को समाप्त कर देने के लिए ही इनमें अहं को मिटा देने की भावना जागृत हुई। उनके अनुसार अहं विसर्जन की भावना व्यक्ति के अकेलेपन से मुक्ति प्राप्त करने तथा समष्टि में 'स्व' को समाहित कर देने की भावना से ही जुड़ी है ।
जैनेन्द्र ने स्त्री-पुरुष दोनों को साहित्य में व्यक्त किया है। स्त्री अपने स्त्रीत्व में तथा पुरुष अपने पुरुषत्व में नितान्त एकाकी तथा अपूर्ण है। स्त्री पुरुष में अपने अभाव को खोजती है और पुरुष स्त्री में अपना विकास पाता है। जैनेन्द्र के कथा साहित्य में यह भावना अर्द्धनारीश्वर के रूप में अभिव्यक्त हुई है। 'फाँसी', 'एक रात', 'रानी महामाया', 'दिन-रात में स्त्री-पुरुष का अकेलापन उन्हें अलग कर देता है। वे अपने जीवन की व्यवस्था में भी मन की बुझाने का रास्ता ढूँढती हैं ।
इनके कथा साहित्य के अधिकांश पात्र अपने जीवन में अधिक से अधिक कष्ट सहकर समाज की मंगलाकांक्षा में लीन रहते हैं । 'त्यागपत्र' की मृणाल और 'कल्याणी' में कल्याणी पीड़ा को सहकर ही स्वयं को समाज के प्रति समर्पित करती हैं। वैसे जैनेन्द्र ने आत्मोत्सर्ग को जीवन का प्रधान लक्ष्य माना है, किन्तु उनके पात्रों के स्वाभिमान को कोई ठेस नहीं पहुँचती । उनके पात्र पीड़ा को तो सहते हैं, किन्तु अपने व्यक्तित्व पर आँच नहीं आने देते। 'वह रानी' कहानी में रानी दुर्भाग्य के थपेड़े खाती हुई कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है, किन्तु अपमानित होकर अपने प्रेमी की सहानुभूति नहीं ग्रहण कर सकती ।
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