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कारण होता है। उनकी दृष्टि में पूँजीपतियों की स्वार्थमयी दृष्टि ने समाज में ऐसा जहर घोल दिया है जिसे समाप्त किए बिना समस्त मानव सस्कृति का विनाश निश्चित है। ऐसी विषम स्थिति में जागरूक क्रान्तिकारी समाज के भीतर व्याप्त अर्थ की शक्ति का विस्फोट करने के लिए विवश हैं। ‘सुखदा' में लाल ऐसा ही क्रान्तिकारी व्यक्ति है, जिसकी दृष्टि में पैसे ने अपने दाँत से काट-काट कर जगह-जगह समाज के शरीर में जो घाव कर रखे हैं उन घावों का धोना और बहा देना ही उनका प्रमुख शौक है। अर्थ के इस प्रकार पूँजीकृत होने से गरीब, गरीब होते गये और अमीर अधिक अमीर होते गये हैं। इस प्रकार गरीबी और अमीरी दो ऐसे किनारे बन गये हैं जिनमें मिलन अर्थात् पारस्परिक प्रेम की कोई सम्भावना ही नहीं दृष्टिगत होती है। जैनेन्द्र के अनुसार पूँजी ने मनुष्य को आदमियत से अधिक हैसियत से जोडकर झूठी मर्यादा और प्रतिष्ठा को बढ़ाने में ही सहयोग दिया है। जैनेन्द्र के साहित्य द्वारा धनी वर्ग के प्रति उनकी घोर वितृष्णा का भाव लक्षित होता है।
जैनेन्द्र के कथा साहित्य में पूँजीपतियों के विरूद्ध हिंसात्मक वृत्ति भी लक्षित होती है, किन्तु इस वृत्ति के माध्यम से जैनेन्द्र का उद्देश्य पूँजीपतियों के प्रति अपने आक्रोश को ही व्यक्त करना है। "विवर्त' और 'सुखदा' में जैनेन्द्र के इन्हीं विचारों की झलक मिलती है। जैनेन्द्र की दृष्टि में पूँजीवादी सभ्यता में व्यक्ति की नहीं बल्कि पैसे की पूजा होती है। इस प्रकार जैनेन्द्र के साहित्य का अध्ययन करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि धनी वर्ग की झूठी और छली सभ्यता के प्रति उनके मन में तनिक भी सम्मान नहीं है। उनका आदर्श मानव-मानव के सौहार्द में ही पूर्ण होता है। उन्होंने अपने
66 जैनेन्द्र कुमार - सुखदा, पृष्ठ – 107
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