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जैनेन्द्र के अनुसार काया - क्लेश के द्वारा हम अपनी आत्मा के रस को सूखा देते हैं। बूँद का अस्तित्व समुद्र की अपेक्षा में ही सम्भव है । समुद्र से पृथक होकर उसका अस्तित्व स्थिर नहीं रह सकता | So जैनेन्द्र ने 'बाहुबली' को मनुष्यधर्मी बनाने के हेतु उसे तपस्या से विमुख कर जनहित की ओर केन्द्रित किया है कि मैं सबके प्रति सदा सुप्राप्त होने के स्थिति में अब रहूँगा... बाहुबली ने निर्मल कैवल्य पाया था । ग्रन्थियाँ सब खुल गयी थीं। अब उन्हें किस ओर से बन्द रहने की आवश्यकता थी? वे चहुँओर खुले सबके प्रति सुगम रहने लगे थे 157
जीवन में धर्म की उपादेयता
जैनेन्द्र के अनुसार धर्म जीवन का आवश्यक अंग है । मानव-जीवन के सभी कर्मों की सार्थकता उसके धर्ममय होने में है। वर्तमान परिस्थितियों में धन और उसका भोग ही उसके जीवन का अंग बन गया है, धर्म से उसका जीवन दूर होता जा रहा है। बड़े-बड़े अमीर लोग धन की ओर आकर्षित होते जा रहे हैं और धन उनके पास खिंचता भी आ रहा है, परन्तु उनकी आत्मा सूखती जा रही है। जैनेन्द्र ने अपने कथा साहित्य में ऐसे पात्रों का चित्रण किया है, जिनके लिए अर्थ और काम की प्रधानता है, धर्म से वे लोग बिल्कुल अनिभिज्ञ हैं और न ही उन्हें उसको जानने की जिज्ञासा ही
| जैनेन्द्र ने 'अनन्तर' में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है कि ये धाम (शांति धाम ) मैं नहीं समझता, जिसमें रहता हूँ वही समझता हूँ रूपया समझता हूँ यह भी समझता हूँ कि सब मुझे उसी के लिए समझते हैं । मुझे और कुछ से मतलब नहीं है। 52 'विवर्त', 'कल्याणी', 'अनन्तर',
50 जैनेन्द्र कुमार - इतस्ततः, पृष्ठ – 199
51 जैनेन्द्र कुमार - बाहुबली, पृष्ठ - 179 52 जैनेन्द्र कुमार - अनन्तर, पृष्ठ - 70
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