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परम श्रेष्ठ धर्म है। परम श्रेष्ठ धर्म तो निरपवाद होता है ही, व्यक्ति, परिस्थिति और देशकाल आदि के भेद से उसके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता। जैनेन्द्र ने स्वधर्म के पालन के लिए विशेष बल दिया है। स्वधर्म पालन के मूल में उनकी अहिंसक नीति ही विद्यमान है। जैनेन्द्र की अहिंसा शारीरिक अहिंसा तक ही सीमित न होकर मन की अहिंसा
में भी व्याप्त है।
अहिंसा जैनेन्द्र के धार्मिक विचार का मूल आधार है। अहिंसा वह प्राणतत्व है जिससे अलग होकर धर्म का कोई अस्तित्व नहीं है। जैन धर्म में अहिंसा पर बहुत जोर दिया गया है। उनकी अहिंसा नीति पूरे विश्व में व्याप्त है। जैन धर्म में अहिंसा का बड़ी कठोरता से पालन किया गया है। जैनेन्द्र ने अहिंसा को मानव धर्म मानकर ही रचना की है। "जयवर्धन' में जैनेन्द्र ने व्यक्त किया है "देह के जीने-मरने से उसका सम्बन्ध नहीं है। मैं सबको बार-बार मारूँ या सैकड़ों, हजारों, लाखों, करोड़ों में - इन सबसे अहिंसा का कोई सम्बन्ध नहीं है। पर अपने भीतर के प्रेम को मरने दूँ तो मुझसे बड़ा अपराधी कौन होगा।
जैनेन्द्र ने स्वधर्म पालन में होने वाली हिंसा को पाप नहीं माना है। उन्होंने जीव-हिंसा को बहुत बड़ा पाप माना है। जैनेन्द्र ने विकासवाद में, देवत्व को हिंसा में अहिंसा की स्थिति के आधार पर स्पष्ट किया है। उनके अनुसार हिंसा वह प्रक्रिया है, जिसमें स्वकीय के लिए 'पर' पर प्रहार होता है। यदि 'स्व' के पास ‘स्वकीय' न हो तो प्रहार की प्रेरणा का अन्त हो जाय। वस्तुतः प्रहार की हिंसा में भी स्वकीयता अर्थात् अहिंसा की आधार स्थिति आवश्यक है। जैनेन्द्र की 'निर्मम' कहानी में इस बात को स्पष्ट किया गया है
41 जैनेन्द्र कुमार - जयवर्धन, पृष्ठ - 148
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