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* जैनेन्द्र की कहानियां [मातवाँ भाग] कैलाश-पटना की गोशाला की बात है न ? वहाँ सिंह बाबू से .तार से हाल मंगा लो । सेठ जी से भी विवरण मांगो। (कुछ अाहट पा ऊपर अखेिं उठाते हैं तो दीखते हैं नायर) आ गए ! ले आप्रो.-(लीला का प्रवेश) आखिर पाँच दिन बाद में मिल तो गया ! बढ़ी चली आयो। पर देखो मैं बूढ़ा हूँ, उठ नहीं सकता। [खिलखिलाकर हँसते हैं। लिली पास आती है। गद्दे पर ही जरा सरक कर उसके लिए जगह कर देते हैं। पर वह पास नीचे
फर्श पर बैठ जाती है। कैलाश-(मुस्करा कर) रामदास, अपने कागज छोड़ो और भागा। (रामदास चला जाता है । लिली से ) गद्दे से फर्श ठण्डा है, शायद इसी से नीचे बैठी हो । ठीक । सुना तुम इन पाँच दिन खूब तरसीं। पर मेरा क्या हाल रहा, यह भी जानती हो ? मेरा तुम से अच्छा हाल नहीं रहा । कहो, तुम्हें मालूम हुआ कि नहीं कि तुम अब लीला हो। बेशक शर्त यह कि तुम लीला होना पसन्द करो।
लिली-मैं हिन्दुस्तानी नहीं हूँ।
कैलाश-हिन्दुस्तान में तो हो । (हँसते हैं) रोम में रोमन, हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तानी। बोलो मंजर ?...पर मेरा पूछना व्यर्थ है। यह साड़ी बता रही है। खद्दर की साड़ी में कैसी भली लगती हो, कुछ मालूम है ? खैर यही है कि यहाँ कोई आइना नहीं है। (खिलखिलाकर हँसते हैं ) चाहती हो, आइना मँगाऊँ ? .
लीला-मुझे यहाँ कई रोज हो गये...
कैलाश-हाँ, मैं भूला। सबसे पहले मुझे माफी मांगनीं थी। पर मुझे तो दौरे पकड़े रहते हैं । आज यहाँ, तो कल वहाँ । लेकिन तुम्हें आकर क्या यहाँ रह जाना था ? जहाँ होता वहीं पहुँच मुझे पकड़ लेतीं। मैं तो डरता था कि अमरीका से आ रही हो तो प्रासानी से मुझे छुट्टी न होगी। अमरीकन पक्के शिकारी होते हैं। तुम्हें यहाँ कोई कष्ट तो नहीं हुआ ?