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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
रह गया, तब अपने सामने से उस गिलास को दूर हटाकर वर्मा ने कहा, "सदानन्द, मैं अभी तुम्हें ही याद कर रहा था । तुम बम्बई में ? यह भी किस्मत है !"
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मैंने कहा, "वर्मा मुझे मालूम न था कि तुम यहाँ रहते हो । बिलकुल और हो हो गये हो !"
श्याम, यह मत समझना कि वर्मा उस वक्त भी अपनी बाहरी धज में वही चुस्त-दुरुस्त न था । पर मालूम होता था कि जैसे वह अब उसकी आदत का हिस्सा है, मन उसका वहाँ नहीं है। उसने कहा, "और हो गया हूँ ! हाँ, शायद | दुनिया बदला करती है, सदानन्द । खैर, तुम यहाँ कल इस वक्त मिलोगे तो ?"
मैंने कहा, "वर्मा, मैं इसी होटल में हूँ । ग्राम्रो चलें, कमरे में चलें ।"
“चलें !” वह अस्त-व्यस्त-सा होकर बोला, “खैर चलने की बात देखेंगे...। प्रच्छा सदानन्द, वह तुम्हारे मित्र श्याम कहाँ हैं.. लखनऊ में ? वह दुनिया के नाकाम श्रादमियों में से नहीं हैं न ? वह काम का आदमी है, क्यों सदानन्द ? सुना है, उसकी बड़ी अच्छी शादी हुई है । उसकी बीबी..."
श्याम, तुम ही बताओ, मैं उस वक्त वर्मा को क्या समझता, क्या कहता ? वह कुछ सुनने के 'मूड' में उस वक्त न था, जैसे अपने ही भीतर कहीं गिरफ्तार हो । आज की शाम बीती जा रही है और अब तक वर्मा नहीं प्राया है । मैं जरूर उसके बारे में तुम्हें लिखूँगा ।
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और कोई नई बात मेरे साथ नहीं है । तुम यकीन रख सकते हो कि
तुमको में अपने बारे में अँधेरे में न रखना चाहूँगा ।
तुम्हारा सदानन्द