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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग ]
लगी । भातर के रीतेपन को जो वस्तु ग्रनायास भर जाती है उसके स्वाद को कुछ ठीक तरह कह नहीं सकते । वह मीठा भी है, और तीखा भी है और कड़वा भी है, और सलोना भी है । पर नहीं, वीणा कुछ नहीं जानती । उसे याद आती है, पर किसी खास की नहीं। वह चाहती है, पर जाने क्या सच यह कि वह कुछ नहीं चाहती। दिन बहुत - बहुत सुहावना है। सब कुछ सुहावना है । बयार कैसी प्यारी है। आसमान कैसा भीगा है | नन्हीं-नन्हीं फुहार कैसी भली लगती है । नहीं, वह कुछ नहीं जानती, वह कुछ नहीं चाहती । वह बस है और हिंडोलने में भूलती हुई गुनगुना रही है |
मानता टूटी तो उसे कुछ बुरा भी लगा । लेकिन उसने स्वयं तोड़ी थी, क्योंकि अपने से अलग कर उसे कुछ पंक्तियों में बाँध रखने का ख्याल हो प्राया । कागज-पेन्सिल लेकर तब उसने कुछ लिख डाला ।
साथी किशोर के सामने उसे भिभक यही थी कि यह कैसी बड़ी भारी मूर्खता हुई । दुखी, दीन, दलितों को भूल कर उसने यह क्या कर डाला । बोली, "नहीं-नहीं, मुझ से कुछ लिखा नहीं गया ।"
साथी ने कहा, "वीणा, ऐसे नहीं चलेगा । लाओ, देखें क्या लिखा है ।"
वीणा ने कहा, "आज नहीं, शाम कुछ लिखकर कल दिखाऊँगी । आपने क्या विषय बताया था, मैं भूल गई ।"
"कोई विषय ले सकती हो —— जठराग्नि, कुदाली, कीकर का ठूंठ, विषय - ही विषय पड़े हैं। जिनका दुःख मूक है, काव्य की वाणी उन्हीं के लिए हो । उससे हट कर काव्य विलास हो जाता है । वीरगा, साहित्य न विनोद न विलास, वह दायित्व है । सामाजिक पृष्ठभूमि जिसमें नहीं, वह रचना स्व-रति की द्योतक है। अपने को भुलाने और बहकाने से नहीं चलेगा, सामाजिक चेतना को प्रबुद्ध करना होगा। हम पूँजीवादी व्यवस्था की जकड़ में हैं, वीरणा । उसका समर्थक साहित्य मीठा होने की..