________________
जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवा भाग] कि समुद्र से नहीं, हवा से जानो। समय की बचत होगी और पैसा...
चार्ल्स-उनकी फ़िक्र नहीं है। __ कैलाश-हाँ, पैसे की फ़िक्र न होनी चाहिए। लीला, यह खुशी है कि यह तय है, तुम अब जा रही हो । यहाँ के लोग एकदम तो नहीं, लेकिन हाँ थोड़े-थोड़े पागल ज़रूर होंगे । पर फिर भी तुम उनको याद रख सकती हो । अब मैं चलू।
लीला-तो आपकी इजाज़त है ? कैलाश-(हँसकर) ज़रूर इजाजत है ।
लीला-(एकाएक) लेकिन क्या मैं यह तय नहीं कर सकती कि मैं न जाऊँ ?
कैलाश-उसकी भी इजाजत है। लीला-तो मैं नहीं जाऊँगी।
कैलाश-सोच देखो। [ कैलाश चले जाते हैं । लीला कुछ देर उन्हें जाते हुए देखती रहती है। प्रोझल होने पर दोनों हाथों से मुंह को ढक लेती है और सुबकने लगती है। फिर वह सिर को घुटनो पर
डालकर अवश हो रहती है।] चार्ल्स-लिली ! लिली !
[उसके कमर में हाथ डालता है।] लीला-हट जानो। मुझ से न बोलो। ओ, ईश्वर, मैं क्या करूँ ? चार्ल्स-लिली, डीयर, चलो, यहाँ से चलो।
लीला-(मुह उठाकर) मुझे क्यों मार रहे हो ? मुझे जबर्दस्ती उठाकर क्यों यहाँ से एकदम भगा नहीं ले चलते हो ? मैं यहाँ रहूँगी। मर जाऊँगी, पर अपने पाप नहीं जा सकती। तुमसे इतना भी नहीं होता कि बलात्कार करो और मुझे ले जानो। मुझसे तुम्हें इतना डर लगता है ? कहती हूँ, ले जायो । नहीं तो मैं खो जाऊँगी।