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जैनेन्द्र की कहानियाँ [सातवाँ भाग] वागीश ने कहा, "वह वागीश अब है कहाँ जो कहानी लिखता था? वह तो मर गया । क्या आप लोग चाहते थे कि वह न मरता ? या अब चाहते हैं कि न मरे ?" ___ "वाह-वाह ! आप क्या कहते हैं ? इरशाद कीजिए, हम हाजिर हैं। विजनिस की हालत तो आप जानते हैं ! कागज की महंगाई तो कमर तोड़े डालती है । फिर भी जिस लायक हैं, हम पीछे न रहेंगे। आप जो कहिए, सिर-आँखों पर । दस, पन्द्रह, बीस, चालीस-पाष कह कर तो देखिए। लेकिन हम हर महीने आप की एक कहानी चाहते हैं । अपने यहाँ कहानी-लेखक हैं कितने ? हैं कहाँ ? विलायतों में देखिए, वहाँ लोग हैं ऊँचे दर्जे के, और उनकी कद्र भी है। मगर यहाँ पाप हैं और दो-चार गिन लीजिए, वे भी लिखें नहीं तो हम क्या कूड़े से अपना अखबार भरें ? आखिर आप ही कहिए ! देखिए वागीश जी, एक कहानी माप हम को हर महीने दीजिए और रकम, जो इरशाद फरमाइए, हाजिर करूँ । सच कहता हूँ, मेरी मंशा है कि अखबार का और उसके जरिए हिन्दी का स्टैण्डर्ड बने । विलायती किसी पत्रिका से आप की यह पत्रिका टक्कर ले सके, जी हाँ । और आप लोगों की इनायत हो तो यह क्य। कुछ मुश्किल काम है......?" ___ वागीश अपने में संकुचित था । कुछ इस वजह से भी कि बीस रुपए की गरज लेकर वह यहाँ आया था। कानपुर से चला तो दस रुपये उस की जेब में थे। क्या ख्याल था कि राह में जहमत गले पा पड़ेगी। अब बीस रुपये यहाँ से लेकर उस औरत के माथे पटक देगा और किनारा लेगा। यह सोच कर वह आया था। यहाँ आने पर ख्याल हुआ कि कहाँ मेरी लापरवाही कि इतने खतों का एक जवाब नहीं दिया, और कहाँ इनका यह सलूक कि खातिर से मुझे छाये दे रहे हैं। कहा, “जी नहीं, वह तो आप की कृपा है । लेकिन सच मानिए कि मैं कहानी भूल गया हूँ। किस मुह से आप को पास दिलाता ? और आस-भरा पत्र न भेज